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उपदेश-प्रासाद
भी लक्ष्पी-सूरि
उपदेशप्रासाद अपने नाम के अनुसार प्रौपदेशिक ग्रन्थ है। इसके कर्ता आचार्य श्री विजयलक्ष्मी सूरिजी आनन्दसूरीय परम्परा के उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध के प्राचार्य हैं, इन्होंने अपना यह ग्रन्थ वि० सं० १८४३ के कार्तिक शुक्ला पंचमी को खंभात में समाप्त किया है। कर्ता के कथनानुसार अपने शिष्य प्रेमविजयजी के लिए इसे रचा है। सचमुच यह ग्रन्थ लेखक के कथनानुसार सामान्य साधुओं के लिए ही उपयोगी हो सकता है। विद्वान् वाचकों के लिए इसका विशेष उपयोग नहीं हो सकता, इसकी रचना भी शिथिल और व्याकरण के दोषों से रहित नहीं है। विषय के निरूपण में भी अनेक पुनरुक्तियां हुई हैं। कर्ता ने ग्रन्थ का नाम “प्रासाद' और उसके अध्यायों का नाम “स्तम्भ'' रखा है। प्रत्येक स्तम्भ के पन्द्रह पन्द्रह व्याख्यानों को स्तम्भ की “अस्रियां" होना लिखा है, इस कथन से इतना तो ज्ञात हो ही जाता है कि ग्रन्थ कर्ता श्री विजयलक्ष्मी सूरि शिल्प-शास्त्र का एकड़ा तक नहीं जानते थे। अगर ऐसा न होता तो प्रत्येक स्तम्भ की पंचदश अस्रियां नहीं बताते, क्योंकि प्रासाद के स्तम्भ चतुरस्र, अष्टास्त्र, षोडशास्र और वृत्त होते हैं, विषम अनिवाला कोई स्तम्भ नहीं होता।
उपदेशप्रासाद ग्रन्थ का अाधार जैन शास्त्र में प्रचलित कथाएँ हैं । पूर्वार्ध में विशेषतः गृहस्थोपयोगी बातें हैं-जैसे कि सम्यक्त्व, द्वादश व्रत, उन प्रत्येक के साथ दृष्टान्त हैं। उत्तरार्ध में कुछ साधु-धर्म की भी चर्चा की है। गृहस्थों के योग्य प्रायश्चित्तादि बातें दी हैं। अन्त में ग्रन्थकार ने ही "हीर सौभाग्य' के अन्त की गुर्वावली और दूसरी गुर्वावलियों के
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