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निबन्ध-निचय
गोष" में "पइट्ठा" अगर "पतिद्वा" शब्द ही आते हैं, “पसिद्धा" नहीं, पाध्यायजी महाराज के दिमाग में कुछ ऐसी बातें जंच गई हैं कि सिद्ध गदि की प्रतिष्ठा शाश्वत है, जिसकी उपमा अशाश्वत प्रतिष्ठा को नहीं दी जा सकती, परन्तु उपाध्यायजी का उक्त संशोधन वास्तव में संशोधन नहीं |ल्कि "शुद्ध को" "अशुद्ध करने वाला पाठ" है "पादलिप्त प्रतिष्ठापद्धति" 'प्रतिष्ठापंचाशक" जैसे प्राचीन प्रतिष्ठा-विधान ग्रन्थों में भी सिद्ध, रु पर्वत, जम्बूद्वीप, लवण समुद्र आदि शाश्वत पदार्थों की स्थिति को भी तिष्ठाही कहा है, यहां पर प्रतिष्ठा का अर्थ स्थापन करना नहीं पर स्थिति" ऐसा मानना चाहिए। श्रीमान् उपाध्यायजी महाराज प्रतिष्ठा का 'रिचय जानते होते तो यह शुद्धि के नाम से अशुद्धि का प्रक्षेप नहीं करते।
उपाध्याय मानविजयजी ने "धर्मसंग्रह" में सैद्धान्तिक निरूपणों के थ कई स्थानों पर तो अपने समय की अनेक बातों का वर्णन किया है, जनकी सैद्धान्तिक बातों के साथ सङ्गति नहीं होती। आपके इस प्रकार के नरूपणों से "धर्मसंग्रह" न सैद्धान्तिक ग्रन्थ कहा जा सकता है न साना
री और न प्रौपदेशिक। आपने स्थान-स्थान पर भाष्यों, चूणियों और मूल [त्रों के अवतरण देकर अपने ग्रन्थ को सैद्धान्तिक बनाने की चेष्टा की है, 'रन्तु आपकी उपदेशप्रियता के कारण ग्रन्थ कोरा सैद्धान्तिक न रहकर सद्धान्त, उपदेश और सामाचारी की बातों का संग्रह बन गया है। कुछ
हो परन्तु उपाध्याय मानविजयजी के इस ग्रन्थ निर्माण सम्बन्धी परिश्रम की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकते, यद्यपि कहीं-कहीं पारिभाषिक शब्दों का अर्थ करने में आप सफल नहीं हुए, फिर भी कार्य को गुरुता देखते ऐसी पतों पर अधिक विचार करना आवश्यक नहीं है।
ग्रन्थकर्ता-उपाध्याय मानविजयजी उपाध्याय मानविजयजी ने ग्रन्थ के अन्त में एक बड़ी शस्ति दी है, जिसमें अपनी-प्राचार्य परम्परा तथा गुरुपरम्परा का र्णन किया है, आपकी प्राचार्यपरम्परा आचार्य श्री विजयसेन मूरिजी • प्रथक् होती है, विजयसेन सूरिजी के पट्टार विजयतिलकसूरि, नलकमूरि के पट्टपर विजय प्रानन्दसूरि और प्रान्नद गरि
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