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निबन्ध-निचय
हरिभद्रसूरिजी के समय में इन भावनाओं की तरफ लोकमानस अधिक भुका था, इसलिए पूज्य हरिभद्रसूरिजी ने भी इन भावनाओं की व्यवस्था जैन सिद्धान्त के अनुरूप करके अपने ग्रन्थों में स्थान दिया । आचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि आदि पिछले लेखकों ने भी अपने ग्रन्थों में इन भावनाओं की चर्चा की है, परन्तु श्री यशोविजयजी महाराज ने इन भावनाओं की व्याख्या की है, वह किसी ग्रन्थ से मेल नहीं खाती, उदाहरण स्वरूप आचार्य श्री हेमचन्द्र मैत्री भवना की व्याख्या निम्न प्रकार से करते हैं:
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" मा कार्षीत् कोऽपि पापानि मा च भूत् कोऽपि दुःखितः । मुच्यतां जगदप्येषा, मति मंत्री
निगद्यते
।" अर्थात्ः — कोई भी पाप न करे, कोई भी दुःखी न हो, सारा जगत कर्मों से मुक्त हो, इस प्रकार की बुद्धि को "मैत्री भावना" कहते हैं ।
व उपाध्यायजी की मैत्री भावना की भी व्याख्या पढिये : "तत्र समस्त सत्वत्रिषयः स्नेहपरिणामो मैत्री" अर्थात्ः—“उन भावनाओं में मंत्री भावना का लक्षण है : तमाम प्राणीविषयक स्नेह - परिणाम ।"
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पाठक गरण देखेंगे कि श्री हेमचन्द्राचार्य कृत मैत्री की व्याख्या में और उपाध्यायजी श्री यशोविजयजी महाराज कृत मैत्री की व्याख्या में दिन रात जितना अन्तर है । उपाध्यायजी मैत्री भावना को "स्नेह" रूप बताते हैं, जो जैन सिद्धान्त से मेल नहीं खाता, इसी प्रकार दूसरी भावनाओं के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए ।
विशेष गृही धर्माधिकार के अन्त में ग्रन्थकार ने "जिन बिम्ब प्रतिष्ठा का प्रकरण" दिया है, उसकी समाप्ति में जो मंगल गाथाएँ दी हैं वहां भी उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने “सिद्धारा पट्टा" इस पर अपना संशोधन कर "पइट्ठा” के स्थान पर "सिद्धा" यह शब्द रखा है जो ठीक नहीं, प्रत्येक " प्रतिष्ठा - कल्प" में प्रतिष्ठा के अन्त में किये जाने वाले “मंगल
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