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________________ : १५ : श्री-धर्म-संग्रह उपाध्याय मानविष्यजी कृत स्वोपज्ञ टीका, उ० यशोविजयजी कृत संस्कृत-टिप्पणी युक्त। "धर्मसंग्रह" एक संग्रह-ग्रन्थ है, इसमें अनेक ग्रन्थों के अाधार से ग्रहस्थधर्म और साधूधर्म का निरूपण किया है। ग्रन्थकार ने प्रारम्भ से ही ग्रन्थ को एक संग्रह का रूप देकर इसकी रचना की है। परिणाम यह हुमा कि संग्रह का जितना कलेवर बढ़ा है, उतना विषय का स्पष्टीकरण नहीं हुआ। उपाध्यायजी ने अपनी शैली ही ऐसी रखी है कि विषय का सरल निरूपण करने के स्थान पर अपना स्वतन्त्र निरूपण न करके आधार भूत ग्रन्थों के आधारों का संस्कृत में अक्षरानुवाद किया है और बाद में जिनके आधार से आपने संस्कृत में विषय का निरूपण किया है, उन्हीं प्राधार प्रमाणों के, चाहे वे पद्य हों, गद्य हों संस्कृत हों या प्राकृत, ज्यों के त्यों उद्धरण दे दिये हैं, इससे ग्रन्थ का कलेवर बहुत बढ़ गया है। ग्रन्थकार स्वयं ग्रन्थ के अन्त में कहते हैं- "धर्मसंग्रह" अनुष्टुप श्लोकों के परिमाण से चौदह हजार छ: सौ दो (१४६०२) संख्यात्मक हो गया है। उपाध्याय जो की शैली और इच्छा ग्रन्थ का शरीर बढाने की थी, अन्यथा "धर्मसंग्रह" में जितने विषयों का स्वरूप निरूपण किया है वह इससे प्राधे मेटर में भी प्रतिपादित हो सकता था। प्रसिद्ध सर्वमान्य बातों के वर्णन में प्रमाण देना आवश्यक नहीं होता, जो विषय विवादास्पद होता है उसी के लिए शास्त्रीय प्रमाणों के उद्धरण जरूरी होते हैं, परन्तु :'धर्मसंग्रह' के कर्ता ने इस बात पर तनिक भी विचार नहीं किया। यही कारण है कि आपका ग्रन्थ जितना बढ़ा है, उतना विषय नहीं बढ़ा। इसके अतिरिक्त चैत्यवन्दन सूत्रों, श्राद्धप्रतिक्रमण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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