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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
फिर लेखक जी अपनी अज्ञता जाहिर में लाते हैं कि
" व्यवहार समकित के लिये विना पिताम्बरी साधु जो व्रत पञ्चक्खाण देशविरतीपणा सर्वविरतीपणा लेते देते हैं वे सब परमात्मा के शासन को नष्ट करने वाले हैं "
लेखकों ने किस पीताम्बरी साधु को देखा कि सम्यक्त्व विना देशसर्वविरत्यादि किसी को दिया ? एक दो नाम तो लिख देने थे ।
लेखक जी! अभी तक तुम गृहशूर हो, इस बात की तुम्हें खबर नहीं कि उन का-जिन की आप ' पीताम्बरी' कह कर घृणा करते हैं-कैसा सुंदर व्यवहार है, वे किस रीति से लोगों को धर्म ग्रहण कराते हैं, अगर आपने किसी भी परंपरागत साधु की सेवा का लाभ प्राप्त किया होता तो यह कहने का कभी मौका न आता कि वे सब परमात्मा के शासन को नष्ट करने वाले हैं।
वे परमात्मा के साशन को नष्ट करने वाले नहीं हैं, नष्ट करने वाले वे हैं; जो मनुष्य की ल्याकत दखे विना उसे प्रतिज्ञा करा देते हैं कि ' अमुक कार्य नहीं करना, ' पर यह नहीं सोचते कि इस का नतीजा क्या होगा? कई त्रैस्तुतिकश्रावकों की यह दशा आंखों देखी जाती है कि पहले तो सम्यक्त्व विगैरह लेकर इस कदर सिद्धाई बताते हैं कि मानों आनंद श्रावक कहे सो तो यही है, पर जब कोई निर्जीव भी कारण उपस्थित होता है तो मामा, माता, क्षेत्रपाल आदि मिथ्यात्वी देवों के आगे भी शिर झुकाते हैं, और उन्हें बलिदानादि करते रोते फिरते हैं ।
लेखक महाशय खयाल करें कि आप की कराई हुई प्रतिज्ञा की क्या दशा हुई ? उस का समूल नाश हुआ कि कसर रही।
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