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त्रिस्तुतिक--मत-मीमांसा ।
मैं क्या सारा संसार उन महानुभाव पुरुषों की स्तुति करता है; जो झूठी मान्यता को जलांजलि देकर सत्यवस्तु का स्वीकार करते हैं, लेखक भी यदि सत्यग्राही होने का दावा करते हों तो चाहिये कि वे भी राजेन्द्रमूरिजी का गुरु पद छोड के किसी महापुरुष को गुरु कर लें
यद्यपि लेखकों के गुरु धनविजयजी ने तो उनका गुरुपद कभी का छोड दिया हुआ है; तथापि खेद की बात है कि अभीतक उन्हों ने अपना अभिमान छोड के किसी भी दूसरे मुनिराज का गुरुत्व नहीं स्वीकारा ! । मैं बारवार धनविजय जी से प्रार्थना करता हूं कि वे किसी महात्मा के पास उपसंपद धारण कर के वीतरामदेव के वचनों के आराधक बनें, न जाने यह क्षणविनश्वर देह किस वक्त मिट्टी में मिल जायगा, इस का क्षणमात्र विश्वास न कर के जिनाज्ञाराधक होना ही बुद्धिमानी का लक्षण है।
पाठकद्वंद ! देखिये और सोचिये कि 'मुखसे तो कहना हमारे राजेन्द्रमुरिजी गुरु हैं और तिन की लिखित समाचारी ( कलमों ) के मुजब नहीं वर्तना' यह लेखकों का लेख किन के लिये है ? इस प्रकार ये लोग किस वास्ते आंसु गिराते हैं आप समझे ? अगर नहीं समझे हों तो सुनिये-यह अश्रुपात है उन के निजधर के पीछे ! उन के घर में ही बड़ी फूटफाट हो रही है, इन के परिवार के ही साधु लेखकों के वर्तमानाचार्य का हुक्म नहीं मानते, बस इसी दुःख का यह रुदन है, और यही कारण है कि समकित दानविधि का दोषारोपण लेखकों ने उन के ऊपर मंढा है, बाकी वास्तव में तो लेखकों के घर में भी समकित दान विधि वही है जो जैनभिक्षु ने लिखा है।
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