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________________ . ७८ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । “पहिले राजेन्द्रसूरिजी को गुरु मान के उन की समाचारी का वर्ताब में वर्त के तिनकी हितशिक्षा की तर्जना के मारे उन का गुरु पद छोड और को गुरु करना ! वा मुख से तो कहना हमारे राजेन्द्रसूरिजी गुरु हैं और तिन की लिखित समाचारी [ कलमों ] के मुजब नहीं वर्तना अपने मनमानी समाचारी करना वैसे साधुओं का घरकी यह समकित देने की विधि जैनभिक्षुजी ने छपवाई है परंतु खास राजेन्द्रसूरिजी के साधुओं की यह समकित दान ( देने ) की विधि नहीं है किंतु गच्छबहार के साधुओं की है ! " लेखक जी ! पहले मेरे इस प्रश्न का उत्तर दीजिये कि अंगारमर्दकाचार्य को उस के पांच सौ शिष्यों ने क्यों छोड दिया ? जमाली को उसके परिवार के साधुओं ने किस लिये त्याग दिया ?। कहोगे कि वे तो क्रमशः अभव्य और निन्हव थे ! तो यहां भी जानलो कि जब तक किसी को यह मालूम न हुआ कि 'राजेन्द्रमूरिजी शास्त्रविरुद्ध चलते हैं ' सब उन के कहने में चलते रहे, पर जब यह बात समझ में आ गई कि राजेन्द्रमूरिजी का मत शास्त्रसंमत नहीं है तब तो उन के मत का और गुरुपद का त्याग अवश्य करना ही चाहिये ! क्या भवभीरु जीवों को यह उचित है कि 'गधे की पूंछ पकडी सो पकडी, चाहे दांत भी गिर जायँ पर उसे छोडना नहीं ?,' नहीं २ यह वात अच्छी नहीं है, संसार में वह मनुष्य मूर्ख कहलाता है; जो अपनी तुच्छ बुद्धि से असत्य वस्तु को सत्य मान लेता है, और उसका भी शिरोमणि वह है, जो असत्य को असत्य जानके भी उस को सत्य कह कर पकडे रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003120
Book TitleTristutik Mat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherLakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara
Publication Year1917
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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