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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
हांसी-मस्वरी कराने वाली नहीं है ?, यह आप का 'परोपदेशपांडित्य ' नहीं कि आपके गुरु तो मन आया बके तो भी वह हांसी मस्खरी करने वाले नहीं और दूसरा कोई योग्य बात कहे तो भी उसे हांसी-मस्वरी कराने वाला कहना ? वाह जी वाह ! पक्षपात के काले चश्मे तो ठीक पहिने हैं।
लेखक जी : जैनभिक्षजी हमेशा सच्च के घोडे दौड़ाते हैं और वे आसानी से सुगति के सुख को भोगेंगे, कारण कि सत्यवक्ता सदा ही सुगति का भागी होता है यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है। हां जो गप्पवादी हैं, अपनी सारी जींदगी ही प्रपंची कामो में बीताते हैं उनका तो डेरा अवश्य रत्नप्रभा आदि विशालभूमियों में ही होगा,
जैनभिक्षु सरीखे सरलहृदयी मनुष्यों का ऐसा कर्म कहां जो वे उक्त स्थानों की सफर करें।
फिर लेखक अपनी साधुता का परिचय देते हैं कि
“ राजेन्द्रसूरिजी के इने गिने १० - १५ साधु हैं तो जैनभिक्षुजी के अंधगुरु अंध श्रद्धा के एक दो ही इने गिने होयंगे ! ! जे कर कहोगें कि अंधगुरु के शिष्य ने तो पीत ( पीला ) वस्त्र धारण किया जिस से इन के पक्षी साधु अनेक हैं ! इने गिने नहीं हैं ! तो श्रीराजे. न्द्रसूरिजी के भी श्वेताम्बर ( सपेतवस्त्र ) के धारणे वाले साधु अनेक हैं जिस लिये इने गिने नहीं कहे जावेंगे ! "
लेखक जी! ग्रामशार्दूलों की तरह अपने नियत गड्डों में ही न भरा कर जरा तलाश कीजिये कि जैनभिक्षु जी के गुरु अंध हैं कि देखते ? वे अंधश्रद्धालु व्यक्ति हैं कि सारग्राही ? और उन के साधु इने गिने एक दो ही हैं कि एक दो वीसी ? और
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