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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
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ने यह सोच के कि-'अब तो गांव के ठाकुर को उलटा भीडाये विना मेरा निस्तार नहीं है- अपने तावेदार 'शिरेमल' नामके गांव सायला के गृहस्थ यति को जोधपुर 'दासपा ' ठाकुर के पास भेजा और उस के द्वारा उन को अपने रोदन सुनाये, मरण का भय सुनाया, उपद्रव का भय बताया, पर जो पृथ्वी को पालना जानता है, धर्माधर्म का फल मानने वाला है ऐसा एक दाना क्षत्रियपुत्र इस प्रकार के कंगले वचनों से क्या डर जायगा ? ' अगर ऐसा हो तो उसकी जाति को कलंकित ही समझना चाहिये । वह क्षत्रिय वीर इस क्लीबोचित वचनों से तनिक भी नहीं डर के अपनी अचल प्रतिज्ञा-पहले दिये हुए प्रतिष्ठा में रोक टोक नहीं करने के वचन को पालने में तत्पर रहा। ___ साथ ही — इतो व्याघ्रस्ततस्तटी' इस प्रकार के संकट में सपडाये हुए इस बुढ्ढे की भी उस दयालु राजपूत को दया आई, तब अपने वाघरे गांव के हवालदार को लिख दिया कि 'धनविजयजी को भी वाघरा के महाजन प्रतिष्ठा में सामिल रक्खे तो ठीक ही है,' यह ठाकुर साहब का लिखना हुकमरूप नहीं पर सलाह मात्र था, और इस मुजब करने को तो वाघरा वाले पहले ही से तय्यार थे । अतएव वाघरासे १०-१५ श्रावक सांथु गये, धनविजयजी की शरतों को मानने के बदले उलटी अपनी तर्फ से कितनीक शरतें उन्हें कबूल कराके ले आये ।
प्रतिष्ठा भी की, अपना मतलब भी किया और आखिरकार श्रावकों की तर्फ से गालियों का शिरपाव पा कर वाघरा से बिदा हुए।
लेखक जी! क्या यह सारी की सारी हकीकत जैन धर्म की
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