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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । mmaarwwwmaininewwwwwwwwwwwwwne w ww....१,१.१.१०.०० १.१.५.५.. बाहर हो गई, मन वश नहीं रह सका, ब्राह्मण पंडितों को गालियों का सिरपाव, मोहनविजयजी को गालियों की अनुवंदना और वाघरा के श्रावकों को दुराशिषों का धर्मलाभ प्रदान कर के वहां से रफू चक्कर हुए, गांव वालों ने बहुत नम्रता के साथ रोके पर सब निकम्मा ! चले सो चले ही गांव 'सांथु' जाके पग टेका।
इतना होने पर भी इस मूर्ति को शान्ति कहां ? वाघरा छोडा पर क्रोध मानादि दुर्गुण तो नहीं छोडे !, सांथु गये तो भी प्रतिष्ठाविषयक बकवाद धनविजयजी के मुख में दिन दुना रात चौगुना होने लगा।
" प्रतिष्ठा करने वाला साधु 'मोहनीया' मर जायगा, कलश चढाने घाला शिखर से गिर पडेगा, ध्वजा दंड चढ़ाने वाला भी मर जायगा, जीमन करने वाला और खाने वाले सब मर जायंगे". __इत्यादि उन्मत्त प्रलाप इन के मुख से यथेच्छ निकलते और सुनने वालों के हृदय में अपूर्व हास्य रस को पुष्ट करते थे।
ऊपर मुजब के प्रलाप भी जब निष्फल जाने लगे, प्रतिष्ठा की तय्यारी झपाटाबंध होने लगी तब बुढे ने जाना कि अब तो बाजी जाती है तो वे खूब व्याकुल हुए, नौका के डूबते समय जी वनार्थी मनुष्य चारों ओर व्याकुलष्टि से जिस प्रकार आलंबन खोजते हैं इसी प्रकार धनविजय जी इस आपत्ति के समुद्र को तेरने का उपाय अहर्निश खोजने लगे और
" जिनो रक्षतु मे यशः” इस मंत्र का जाप जपने लगे। आखिर जरदहृदय में यह नग्ना विचार उत्पन्न हुआ, उन्हों
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