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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
पाठकगण ! माफ कीजिये यह रूपक अनायास कुछ बह गया है, आप का ज्यादा समय नहीं लेता हुआ प्रकृत इतिहास पर आता हूं जरा ध्यान दीजीये।
आप पढ़ चुके हैं कि विनती न होने पर भी धनविजयजी पीछे से वाघरे आ गये, इस बनाव से इन का तिरस्कार हुआ सही पर वे इसे गिनते कब थे ।। ___“ मियां गिरे तो भी टंगड़ी ऊंची " .
इस कहावत को वे चरितार्थ करना ठीक जानते थे, वाघरे आकर के भी इस कथन को वे सफल करने की चेष्टा करने लगे। अपनी संमति विना निकाले गये मुहूर्त को उन्हों ने दुषित ठहराया, एक पूंछ छोड के दूसरी पकडी, अपनी क्रिया मनाने का कदाग्रह छोड के मुहूर्त को सदोष ठहराने का दुराग्रह पकड़ा, पर फायदा क्या हुआ ? प्रतिष्ठा करने कराने तथा उस में सामिल होने वालों को मरण का भय बताया, उपद्रव का भय बताया और जितना हो सका लोगो के हृदय में वहम के अंकुरे उत्पन्न
किये।
इधर मुहूर्त देने वाला श्रीमाली जोषी भी धनविजयजी से पड़े वैसा नहीं था, ज्यों ज्यों वे उपद्रव और मरण का भय बताते त्यों त्यों वह शर्तों के साथ इन का अभाव बताने लगा, बहुत धांधल मचा, आखिर जालोर, आहोर विगैरह गांवों से ज्योतिषी पंडित बुलाये गये, उन के पास सत्यासत्य का निर्णय कराया गया तो उन्हों ने भी सं० १९७२ के माघ शुदि १३ का मुहूर्त निर्दोष ठहराया और धनविजयजी का कहना झूठा सिद्ध किया ।
अब क्या कहना रहा ? इस बनाव से तो उन की गर्मी हद
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