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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
प्राण मुक्त किया, मनोनिग्रह-भ्राता के गले पाश किया सत्य-पुत्र को नाम शेष किया, दया-भगिनी की दुर्गति की और विवेक मित्र का घोर विरोध करा के अविचारदंडकारण्य में भटकाया ।
प्रियपाठक ! अभी तक आप की जिज्ञासा पूरी नहीं हुई होगी, आप इस विचार में होंगे, जैसे रामचंद्र को कुछ समय आपत्ति देखने के बाद फिर संपत्ति का समुद्र हस्तगत हुआ वैसे इन के विषय में हुआ या होगा कि नहीं ? इस प्रश्न का उत्तर देना हाल दुष्वार है, मैं ऐसा सातिशयज्ञानी नहीं कि अपना वचन केवलीभाषित होने का दावा करूं ! तथापि इन की वृत्ति, लोकमान्यता और मेरा हृदय ये सब मेरी लेखनी को यह प्रेरणा करते हैं कि आप की इस पृच्छा का उत्तर 'न कार में ' है । दर असल बात भी यही है, रामचंद्र की सी सामग्री ही इन के पास कहां ? जो अपने विनष्ट कुटुम्ब की वाहर करें ।
समुद्र उल्लंघन करना, राक्षसों के साथ घोरयुद्ध में भीडना और दुश्मन के वश पड़ी हुई अपनी प्राणप्रिया को छुडवाना यह सब एक मात्र रामचंद्र के ही भाग्यफलक में लिखा हुआ था, धनचन्द्र ! पुण्यहीन धनचन्द्र ! क्या तुम भी यह मनोरथ करते हो कि हमारी शान्ति प्रिया पीछी मिल जायगी ? नहीं ! तुम्हारी वह प्रिया गई, तुम्हारा वह कुटुंब कथाशेष हुआ, फिर मिलने की आशा नहीं । तुम्हारा भाग्यपट्टक सड़ गया है अब इस में सिर्फ ये अक्षर अवशिष्ट हैं कि
प्रियकुटुम्बघाती निर्दयमानव ! तुम्हारा भाग्यसूर्य अस्त हुआ अब दुर्भाग्य की रात्री में पडे पडे मृतकुटुंब के पीछे आंसु वहाओ और अपने पाप का प्रायश्चित्त करो!'
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