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________________ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । ७१ - སྣ་ན ༤༡ , ༡ ་ , ག ན, ན བ ག ག ག ན ༤ -- , - - - - औषधी, ग्रह आदि की स्थापना की चांदी, प्रतिष्ठा की पैदाइश का चोथा हिस्सा या जितना मिले उतना रुपया यह सब तो उन का खानगी लाभ, सिवा इस के कई लोगों को सेंकडों रुपया दिलवा के अपनी वाह वाह उडवानी-जैनो के झोंपडे खाली करा के मिथ्यात्वी लोगों के घरों को भरवाना और अपनी क्षणिककीर्ति की दुराशा पूर्ण करनी यह उनका सर्वदृश्य ( बाह्य ) लाभ !। ऐसे २ लाभ लोभ की जाल में जकडे हुए वे किस प्रकार प्रतिष्ठा जैसे कार्य से अलग रह सकें ? मान को भी छोडा, अप कीर्ति की चद्दर भी ओढी, मूर्खता भी स्वीकारी पर लोभ देव के उपासकों ने अपने उपास्यदेव की भक्ति न छोडी । अपने पूज्य परमेश्वर की भक्ति का योग्य समय देख कर सुवर्ण यज्ञ से उस की तृप्ति करने को गांव बाघरे आ ही गये !।। " प्रायः समासन्नविपत्तिकाले धियोऽपि पुंसां मलिनीभवन्ति" यह कविवचन असत्य नहीं,-विपत्ति के समय पुरुषों की बुद्धि मलीन हो जाती है यह बात झूठी नहीं, सुवर्ण का मृग देखने से रामचंद्र की बुद्धि मलीन हुई-वे उस के लोभ में फंसे यह बात ऐतिहासिक है, यद्यपि सत्य है पर भूतकालीन है, किसी की ओखों देखी नहीं, इस लिये इस समय रामचंद्रजी की अपेक्षा धनचंद्रजी का दृष्टान्त पूर्वोक्त वचन का विशेष समर्थन करता है यह मेरी ही नहीं हजारों मनुष्यों की मान्यता सत्य है । रामचंद्रजी की उस लोभ दशा का फल सिर्फ एक सीता के वियोग में परिणत हुआ तब धनचंद्रजी की लोभिष्ठ वृत्ति ने उन्हें अपने सर्वस्व से हाथ धुलाये । शांति-सीता का वियोग ही नहीं, सर्वविनाश किया. धैर्य-पिता का शतमख विनिपात किया, क्षमा-जननी कों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003120
Book TitleTristutik Mat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherLakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara
Publication Year1917
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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