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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
करना कबूल करो तो मैं मुहूर्त दूं और प्रतिष्ठा करने को आऊं।'
गांव वालों ने सोचा कि यह साधु बडा जाली और हठी है पहले ही से हमको जालमें फंसाना चाहता है, पर यह बात होने की नहीं, हम प्रतिष्ठा दुसरे साधुओं से ही करावें गे।
बस प्रतिष्ठा का मुहूर्त-तीन थुई के मुनिश्री मोहनविजय जी की सलाह से जालोर के श्रीमाली पं० रविदत्तजी के पास निकलवा लिया और धनविजय जी देखते ही रहे। ___अब क्या था इतने ही से धनविजय जी के तो बंध ढीले हो गये, उन्हों ने ठाण लिया कि मेरे विना भी प्रतिष्ठा हो जायगी, अव करना क्या ? दूसरों से प्रतिष्ठा होने देनी ? दूसरे प्रतिष्ठा की धूमधाम में दाव खेलें और धनविजय देखता ही रहे क्या यह वात उचित है ? नहीं ऐसा न होगा, चाहे मान घटे या बढे, दुनिया अच्छा कहे या बुरा जो कुछ हो, पर प्रतिष्ठा का डेढपंच तो धनविजय ही होगा, प्रतिष्ठा के प्रपंच के प्रासाद पर तो धनविजय की ही ध्वजा उडेगी, पर अब करना क्या ? करना क्या है ? प्रथम की प्रार्थना नहीं मानी तो खैर, अब विना ही प्रार्थना विनती के वहां जाना और बाजी हाथ कर के फिर दाव खेलना बस यही धनविजय के जीवन मालिका का मेरु और महिमा का कीर्ति स्तंभ है।
लोभी मनुष्य का सर्वविनाश होता है यह बात सर्वाश सत्य है, पर निर्लोभता रखनी भी मनुष्य का कष्ट साध्य कार्य है, धनविजय जी की भी इस लोभने क्या अवस्था की यह बात इस हकीकत से स्पष्ट होती है, वे प्रतिष्ठादि कार्य में अपना मतलब ठीक ठीक निकाल लेते हैं चीज में से चीज, औषधियों में से
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