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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
फल नहीं समझना ?, लेखकजी यों ही बेखवर गप्प लगा देते हैं कि वे १७ और १५ वर्षों के बाद परलोक गये पर लेखकों को तलाश करने से मालूम होगा कि १७-१५ वर्ष तो दूर रहो इतने महीने भी उनने नहीं निकाले ।
फिर लेखक जी जैनभिक्षु के परभव की चिंता करते हुए कहते हैं कि___“जैनभिक्षु जी ! आप तो स्वमत परमत के मूर्ख लोकों में पवित्र श्रीजैनधर्म की हांसी मश्करी निन्दा करवा के जहां कर्दम नहीं तहां पानी बताना ! ऐसे २ झूठ के घोडे दडवडा के ज्ञानी जाने ! पर लोक में कौन कुगति के सुख भोगने की आप की इच्छा भई है ? सो तो आप ही अपने हृदय में शोच विचार के पर लोक का कार्य सुधारोगे तो सुधरेगा ! नहीं तो आप की इच्छा "
पाठकन्द ! देखिये इन लेखकों का 'परोपदेशपाण्डित्य,' जैनभिक्षु का कथन तो-जो यथार्थ है-लेखकों को जैनधर्म की हांसी मस्खरी कराने वाला लगा और वे खुद तथा उनके गुरु कई प्रकार से मिथ्या भाषण कर के अपनी और जैन धर्म की हांसी करा रहे हैं उस की कुछ भी गिनती ही नहीं ? लेखकों के गुरुजी कैसी हास्यजनक बातें बनाते हैं जिस का एक ताजा ही दृष्टान्त लीजिये।
गतचतुर्मास के उतार गांव 'बाघरा' के महाजनों ने गांव . सियाणे जाकर लेखक जी के गुरु (धनविजय जी) को प्रतिष्ठा का मुहूर्त देने के लिये प्रार्थना की।
धनविजय जी ने उत्तर यह दिया 'तुम सब श्रावक और राजेन्द्रमूरिजी के शेष साधु हमारी आज्ञा के मुताविक क्रिया
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