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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
वर्ष के बाद और शिलावट (५) वर्ष के बाद अपना अपना आयुपूर्ण करके सुख सामाधि से परलोक गये हैं "
पाठकवर्ग ! देख लीजिये लेखकों की असत्यता की निशानी, वे कहते हैं कि प्रतिष्ठा करने वाला श्री संघ था, कौन कहेगा कि प्रतिष्ठा श्री संघने कराई ? प्रतिष्ठा कराई है ' लोढा दलीचंदजी' ने, लेखक जी! जरा आंखें खोल के देखो कि आप के राजेन्द्रमूरिजी का लेख क्या कहता है, यदि उसे आपने नहीं देखा हो तो देख लीजिये यहां पर लिख दिया जाता है, ___“ संवत् १९४८ वर्षे वैशाखवदि ६ दिने श्रीजालोरनगरे
कांकरियावासमध्ये श्रीपार्श्वजिनप्रासादप्रतिष्ठा कृता । भ ।
राजेन्द्रसूरिणा प्रतिष्ठा कारको वृद्धशाखायां लोढा उत्तमचंद्र __ सुत दलीचंद " ( इत्यादि )
क्यों लेखक जी ! अब तो देखा कि नहीं ? प्रतिष्ठा कराने वाला श्री संघ है कि दलीचंदजी ? इन्हीं दलीचंदजी के प्राण संवत् १९४९ के श्रावण वदि १४ के दिन दूकान पर बैठे बैठे निकल गये थे।
इसी मंदिर का कलशारोपण शा० जीताजी ने किया और संवत् १९४९ के चैत्र सुद १३ को वे भी परलोक वासी हो गये।
ध्वजादंड चढाने वाले शा० जवानमलजी थे, उन के भी एकाएक पुत्र का दुःखदायक मरण हो गया।
वह शिलावट भी प्रतिष्ठा के बाद थोडे ही अरसे में बीमार पडा और दो वर्ष तक कठिन व्याधि का कष्ट भुगत के आखिर इस दुनिया से बिदा हुआ।
क्या यह सब हालात उस प्रतिमा की भयंकर आशातना का
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