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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
है कि प्रतिमाएं पुरानी हैं, यही दशा कांकरियावास के मूलनायक जी की है, उन्हें देखते ही यह नहीं कहा जा सकता कि ये कितने पुराने होंगे सिर्फ उन की प्राचीनता का साक्षी लेख था सो वह तो राजेन्द्रमूरि जी ने पहले से ही घिसवाडाला, अब तो इस बात का-कि वह प्रतिमा प्रतिष्ठित थी कि नहीं? उस पर लेख था कि नहीं, ? और उसे घिसवा के राजेन्द्रमरि जी ने अपने नाम का नया लेख खुदवाया कि नहीं ? ' निर्णय जालोर वालों के खत-पत्रों से और उन के मुखसे-जो संवत् १९४८ की साल में उस प्रतिष्ठा में शरीक थे-हो सकता है, इस लिये लेखकों को दावा के साथ मैं यह कहता हूं कि यदि आप अपने पूर्वोक्त लेखको सत्य किया चाहते हों तो प्रमाण के साथ पेश आइये ! अन्यथा आपकी सारी दलीलें झूठी और जाली हैं यह कहने में कुछ भी संकोच नहीं रहेगा।
लेखक वारवार उस खंडित मूर्ति को मूलनायक बता कर लोगों को भूलाना चाहते हैं पर याद रहे कि अब आपकी ये करतूतें कोइ भी सच्ची नहीं मानेगा, क्यों कि अब जिस प्रतिमा पर राजेन्द्रमूरिजी के नाम का लेख है उसी पर पहले का लेख था यह बात प्रायः जालोर वासी जानते ही हैं और मैं भी कई दफे कह चुका हूं।
फिर लेखक महाशय अपनी कपटपटुता जाहिर करते हैं कि
वह मंदिर श्री संघ का है, और प्रतिष्ठा कराने वाला भी श्री संघ ही था वह वर्तमान में अब भी जयवन्त वर्त रहा है ! और दंड चढाने वाला ( १७ ) वर्ष के बाद और ध्वजा चढाने वाला (१५)
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