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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
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वह प्रतिष्ठित थी उस के ऊपर प्रतिष्ठा करानेवाले आचार्य के नाम का शिला लेख भी था, उसे राजेन्द्रमूरिजी ने 'जमाल खां' शिलावट के पास रात के समय घिसवाया और अपने नाम का नया खुदवाया, जब इस की खबर मंदिर के गोठियों को मिली तो वे बहुत ही नाराज हुए, यहां तक कि उस शिलावट को प्रतिष्ठा के निमित्त इनाम ( पारितोषिक ) भी नहीं मिला, यह बात जालोर में मशहूर है।
फिर लखक जी अपनी युक्ति दिखाते हैं कि
"जेकर मूलनायक जी के ऊपर प्राचीन आचार्य के नाम का जीर्ण लेख मुसलमान शिलावट के पास घिस के साफ करवाकर अपना नाम का लेख राजेन्द्रसूरिजी ने खुदवाया होता तब तो अभी वर्तमान मूलनायक हैं तिन की मूर्ति जूनी होनी चाहिये सो तो है नहीं ! इस मंदिर जी के जूने असली मूलनायक जी तो हाल नीचे पश्वासण पे विराजमान हो के पहिले पीछे की दोनों साबुती दे रहे हैं कि न तो प्राचीन आचार्य का नाम मुसलमान शिलावट के पास घिसवाया ! न अपना नाम रखने की अभिलाषा से नया नाम शिलावट के पास खुदवाया "
यह भी लिखना सर्वथा निर्बल है, विना निशान आदि के एकदम यह पता नहीं चलता कि यह प्राचीन है या अर्वाचीन जो अत्यंत प्राचीन होती है उसी का पता चलता है कि यह प्र. तिमा प्राचीन है, बाकी २००-३०० सौ वर्ष की पुरानी की प्राचीनता सहसा नहीं पहिचानी जाती, जालोर शहर के बाहर ऋ. षभदेव जी के मंदिर में जो प्रतिमाएं हैं उन्हें देख के कोई भी यह नहीं कह सकता कि ये ७५० बरस की पुरानी होंगी, सिर्फ उन पर के संवत १२२१ आदि के पुराने लेखों से जाना जाता
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