SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । शलाका नहीं हुई थी ' केवल असत्य है, कौन कहता है वह प्रतिमा अंजनशलाकारहित थी ? उस पर का लेख देखने . वाले जालोर में अभी तक मोजूद हैं उस पर के लेख का मतलब ऐसा था कि " तीर्थ वरकाणा में इस बिंब की प्रतिष्ठा अंजनशलाका हुई" इस से लेखकों का यह कथन भी झूठा सिद्ध हुआ कि वह प्रतिमा ' मकराणा जयपुर या सादरी से आई थी। पहले चाहे कहीं से भी आई हो पर नवलमलजी तो उस प्रतिष्ठित प्रतिमा को वरकाणा से ही लाये थे ऐसा उन के खतपत्रों से सिद्ध होता है, यदि इस बात में लेखकों को शंका हो तो जालोर आ कर निर्णय कर लेवें । लेखक जी ! कहिये आप के राजेन्द्रमूरिजी ने जिस प्रतिमा का लेख घिसवाया वह प्रतिष्ठित थी कि अप्रतिष्ठित ?। फिर लेखक झूठ की जाल बिछाते हैं कि " काकरिया वास के मंदिर का असल मूल नायकजी ( १०० ) वर्ष उपरांत के तो प्राचीन ( जुने ) थे परंतु नीचे प्रमाणे खंडित हो गये थै" जैनभिक्षु ने ऐसा कब कहा कि पहले के मूलनायक जी जो कुछ कहीं २ खंडित हैं उन पर का लेख घिसवा डाला ? जैनभिक्षु का यह कथन-- " इस के मूल नायक जी के ऊपर प्राचीन आचार्य के नामका एक जीर्ण लेख था, उस लेख को एक मुसलमान शिलावट के पास घिसवा डाला" ----सत्य है, नवलमल जी ने जो प्रतिमा वरकाणा से लाई थी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003120
Book TitleTristutik Mat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherLakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara
Publication Year1917
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy