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________________ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । केवल उन्मत्त प्रलाप है, क्यों कि मुख से तो कहते हैं कि भावपूजा में चतुर्थ स्तुति कहने से भावपूजा खंडित हो जाती है और सामायिक विना मंदिरादि में देववंदनरूप स्तुतिपूजा में चतुर्थ स्तुति का उपदेश करते हैं, बडा ही आश्चर्य है ! क्या स्तुति पूजा भावपूजा नहीं है ? यदि है तो चतुर्थस्तुति से उस का खंडन हो जायगा कि नहीं ?। पाठकगण ! आप समझे ? यह कुल लेककों और इन के गुरु की चालबाजी है, ये लोग इसी प्रकार लोगों को जाल में फंसाते हैं, पर आप जानते हैं कि अब वह जमाना नहीं है, अब लोगों का अज्ञानतिमिर कुछ दूर हटने लगा है अतएव वे इस प्रपंचजाल को देखने लगे हैं, और इन प्रपंचावतार त्रैस्तुतिकों से नफरत कर रहे हैं कि ' जाली त्रैस्तुतिकों से हम बचते रहें। लेखक जी ! जरा आंखें खोलकर देखिये, चारित्रानुष्ठान का खंडन जैनभिक्षु जी करते हैं कि आप सरीखे नवीन मतावलम्बी लोग ? सनातन धर्म से लोगों की श्रद्धा भ्रष्ट करने वाले, उन्हें ममत्वदेव के उपासक बनाने वाले त्रैस्तुति लोग स्वपर का जन्म विगाड़ रहे हैं कि अन्य कोई ? इस बात की तो पूरी तौर से तलाश कर लीजिये। फिर लेखक जी अपने दादे की वकालत करते हुए कहते " जालोर के कांकरिया वास में श्रीपार्श्वनाथजी का मंदिर है, इस के मूलनायकजी के ऊपर प्राचीन आचार्य का नाम का एक जीर्ण लेख था उस लेख को एक मुसलमान शिलावट के पास घिसवा डाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003120
Book TitleTristutik Mat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherLakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara
Publication Year1917
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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