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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा |
ज्ञा में सब कुछ है, जिस में जिनाज्ञा है वही भावपूजा और जिनाज्ञाशून्य द्रव्यपूजा है ।
लेखकों की मान्यता है कि ' सामायिक पौषधादि में देवकी स्तुति नहीं करनी चाहिये, क्यों कि यह भावपूजा है, और देवतास्तुति द्रव्यपूजा है, भाव के बीच में द्रव्य का प्रवेश उचित नहीं '
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मेरा कहना यह है कि स्तुति भी सामायिक प्रतिक्रमण की तरह भावपूजा ही मानी गई है, देखिये चैत्यवंदनभाष्य वृत्तिअथ तृतीया भावपूजा, सा च स्तुतिभिर्लोकोत्तरसद्भूततीर्थं कर गुणगणवर्णनपराभिर्वापद्धतिभिर्भवति, आह च--तया उ भावपूआ ठाउं चियवंदणोचिए देते । जहसत्ति चित्तथुथुत्त माइणो देवचंद्रणयं ति ॥ "
अर्थ - अब तीसरी भाव पूजा है, सो वह तीर्थंकरों के सत लोकोत्तर गुणों का वर्णन करने वाली वचनरचनारूप स्तुति यों से होती है, अन्य ग्रन्थकार भी कहते हैं- चैत्यवंदन करने योग्य स्थानमें ठहर के अनेक प्रकार के स्तुतिस्तोत्रों से देववंदन करना इसका नाम भाव पूजा है, ' यह पूजा का तीसरा भेद है,
इस से यह सिद्ध हुआ कि सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध हो या मत हो केवल देववंदन भी भावपूजा है, इस लिये लेखक और उन के वर्तमान गुरु का यह कथन कि
" सामायिक पौषव रहित श्रावक देव वंदन करे उस में चौथी थुई कहने का दोष नहीं
"
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