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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
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लेखक महाशयों को इस बात का खयाल है कि कल्पित परंपरा किसे कहते हैं ? जो परंपरा अविच्छिन्नधारा से चली आती हो, जिस में क्रिया प्ररूपणा का विभेद न हो उस परंपरा को भी कल्पित कहने का दुःसाहस विना उल्ल के ओर कोइ कर सकता है ? ।
कल्पित परंपरा है वह जिस के पूर्व पुरुष सर्वथा आरंभ परिग्रहासक्त थे, जिस के उत्तर पुरुषों ने अपने गुरुओं को त्याग के विरुद्ध प्ररूपणा द्वारा तीन थुई का मत निकाला, और जब लोगों में 'नगुरुए ' कहलाने लगे तो लज्जा के मारे फिर उन त्यागे हुए असंयत पुरुषों को अपने पूर्वाचार्य स्थापन कर के आप उन की परंपरा के आचार्य, साधु कहलाने लगे, लेखक जी ! सच कहिये यही आप की परंपरा है कि नहीं ।
जैनभिक्षुजी के तो दादा परदादा ही क्यों महावीर स्वामी से ले कर आज तक के परंपरागत सभी आचार्य साधु गुरु श्रीतीर्थकर, गणधर, बहुश्रुत गीतार्थों के वचनानुसार प्रतिक्रमण पौषधादि धार्मिक कार्यों में चार स्तुति करते कराते आये हैं जिस को लेखक तो क्या इनके पूर्वज भी नहीं छोडा सकते ! । भावपूजा का खंडन वे लोग करते हैं जो शास्त्रप्रमाणों का अनादर करके अपनी तुच्छ बुद्धि से नया मत चलाते हैं क्यों कि भावपूजा उसी का नाम है जो वीतरागकी आज्ञानुसार अनुष्ठान किया जाय, विना आज्ञा देवस्तुति तो क्या अपने शरीर तक का त्याग करने वाला भी भावपूजा का कर्ता नहीं हो सकता, भावपूजा वही करता हे जो जिनाज्ञानुसार भला काम करता है। जिनस्तुति भावपूजा नहीं, देवतास्तुति द्रव्यपूजा नहीं, जिना
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