________________
५८
त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा। ཅན རཀ ཀ ཀ ཀ ན ལྡན་ ཨཱལ ཤ ཀ ན བ བ ན བ སྣ་༢ འན་ པ་ ནང་ सच्चाई के लिये हमने शिरतोड़ महनत की, अपने मावापों का अपमान तक करके जिस पंथ में प्रवेश किया उसी मत को अब हम किस मुख से अमान्य कहेंगे ? अगर हम न छोडें तो भी हमारा सहायक कौन ? हमारा गुरु कौन ? हम किस के आगे शिर झुकावेंगे ? किस के उपदेश से हम धर्म क्रिया पालेंगे ?"
इन वचनों से राजेन्द्रमूरिजी का वह निश्चय डिग गया, उन के उस चिरकालक विचार का शीघ्र ही विलय हो गया, और उन ममता के मूल वनियों के मोह में फंस कर वे अपनी प्रतिज्ञा से पतित हो गये।
त्रैस्तुतिक सज्जनों को सोचना चाहिये कि यदि आप के मानने के मवाफिक शास्त्रों में तीन थुई कही होती तो राजेन्द्रमूरिजी सुरत में चार थुई करने के लिये उद्यत क्यों हुए ? क्या उस वक्त भी कोइ पूजा प्रतिष्ठादि कारण आ पा था जो चोथी थुई करने को तत्पर हो गये ? क्या ही अच्छा होता यदि उस वक्त वे अपनी प्रतिज्ञा को पालन करने के लिए भी चार स्तुति कर लेते ! । खैर।
फिर लेखक अपनी करतूत का नमूना वाहर लाते हैं कि
" परंतु जैनभिक्षुजी की कल्पित परंपरा के दादा परदादादि पूर्वजों ने तो श्रीतीर्थकर. गणधर पूर्वधर, बहुश्रुत गीतार्थों के वचन उत्थाप के भाव पूजा जो ( भावस्तव ) सामायिक पोसहादि ( भावपूजा ) चारित्रानुष्ठान का खंडन आज दिनों तक करते हैं और स्वकीय तथा परकीय जन्म बिगाडते हैं ! तैसे श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजी की पाट परंपरा के पूर्वाचार्य नहीं करते कराते थे अब ऐसी ही अपनी २ परंपरा की जुदी जुदी व्यवस्था है "
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org