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त्रिस्तुतिक मत-मीमांसा ।
संवत् १९६० (गुजराती) १९५९ का चतुर्मास राजेन्द्रसूरिजी ने सुरत में किया, सुरत के संघ में इस नूतन मत की खूब चर्चा चली, यहां तक कि राजेन्द्रसूरिजी की उस चिरकाल की भावना की सिद्धि का समय अतिसमीप होने का अनुमान भी लोगों ने बांध लिया था, पर होवे क्या ? जिस कार्य की भवितव्यता ही दूर है वह क्यों कर हो जाय ! |
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यद्यपि राजेन्द्रसूरिजी का पूरा विचार था कि इस मौके पर चार स्तुतियां कर लेंगे, अत एव
" पन्यासजी चतुरविजयजी ने उपाश्रये तेमनी समक्ष राजेन्द्रसूरिजी पधारेला हता तथा संघ समस्त मल्यो हतो तेमनी वच्चेनो त्रण के चार थुइ नो झगडो कोर मुकी राजेन्द्रसूरिजी ने संबे विनंति करवाथी तेमणे मान्य करी छे अने तपगच्छती समाचारीप्रमाणे जो वर्ते तेमने साधु मानव संवत् १९५९ ना जेठ वद १३ ने वार भोम "
इस लेख पर उन्हों ने हस्ताक्षर ( दस्तखत ) भी कर दिये थे, परंतु,
" श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि "
यह कहावत असत्य नहीं थी, उस परम सुलह -शान्ति के कार्य में भी विघ्नसंतोषी लोक अपने बल की परीक्षा करने लगे. मारवाड़ और मालवे के ममत्वी त्रैस्तुतिक श्रावकों ने राजेन्द्रसूरिजी के कान फूंके और पहले ही से वे अपनी इज्जत का दावा करने लगे कि -
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आप तो साधु हैं, आज यहां तो कल कहीं डेरा करेंगे पर हमारी नाक कट जायगी इस का जवाब दाता कौन ? जिस मत की
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