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त्रिस्तुतिक--मत--मीमांसा ।
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खाली कैसे करना ? उन के आगे अपनी भूल प्रकट भी किस प्रकार की जाय ? यदि मान छोड के कह भी देवें कि — अपना यह मत शास्त्रविरुद्ध है ' तो माने कौन ? सगे बाप का भी नहीं माननेवाली वनियों की जात हमारा अन्यथा कथन किस प्रकार मान लेगी ?"
इस प्रकार का विचार राजेन्द्रमूरिजी के हृदय में कई वर्षों तक चलता रहा, पर मनोगत विचार भी गुप्त कहां तक रह सकता है, यह गुप्त अभिप्राय भी उन के परिवार के साधुओं के कानों तक पहुंच गया, और सब के मन पर अच्छा प्रभाव पड़ा, यहां तक कि कई महानुभाव भव भीरु साधुओं के मुख से तो इस प्रकार वचन भी निकलने लगे-- ___“यदि इस प्रकार अपना मत निमूल ही है तब तो इसका त्याग ही श्रेयस्कर है ?"
राजेन्द्रमूरिजी इस गंभीर प्रश्न का समाधान सिर्फ इसी वाक्य से किया करते थे कि
" अवसर आने पर सब अच्छा होगा, हाल तो चलने दो"
पाठक महोदय ! राजेन्द्रसरिजी का यह कथन अलबत्ता ठीक था, आप समज्ञ सकते हैं कि जो आदमी झूठी या सची किसी भी बातको पकड़ लेता है वह उसे विना कारण नहीं छोड़ सकता राजेन्द्रसरिजी के वास्ते भी यही बात थी, भावियोग से तीन थुई का मत उन से निकल गया था, पीछे से समझ भी गये थे कि यह काम ठीक नहीं हुआ, पर अब उसे एकदम छोडना कठिन कार्य था इस लिये मौका देख रहे थे कि यह मत कब छोडा जाय, इतने में वह समय भी निकट आया मालूम होने लगा।
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