________________
त्रिस्तुतिक मत--मीमांसा ।
५५
बहुत हों और समय थोड़ा हो तो एक ही श्लोक, गाथा, दुहा कहना पर मंदिर में अवश्य जाना चाहिये "
इसी विधि से वर्तमान में श्रीसंघ चैत्यपरिपाटी करता है, खुद तीन थुई के साधु श्रावक भी इसी मुजब वर्तते हैं, यदि ऐसा न हो तो वे चैत्यपरिपाटी करते वक्त एक मंदिर में पूर्ण चैत्यवंदन करके दूसरों में जा कर सिर्फ दो तीन ही काव्य, श्लोक, या दोहरे बोल के क्यों चले जाते हैं ? सब जगह तीन या एक स्तुति के देववंदन क्यों नहीं करते पर करे कैसे ? उस गाथा का अर्थ ही मेरे लिखने मुजव है तो दूसरा निकाले कहां से ? सिर्फ मुंह से वोलते हैं कि इस में तीन थुई हैं, वाकई यह कहे विना तो इन का कका चले भी कैसे ? यदि उन गाथाओं का असली अर्थ अपने मुख से कह देवें तब हो इन को यह मन छोडना ही पडे न ?, हां हृदय में जरूर कबूल करते है कि.....
तीन थुई का मत सरासर शास्त्रविरुद्ध है।
अगर ऐसा न होता तो सुरत नगर के संघसमक्ष खुद राजेन्द्रमूरिजी ने चार थुई करने का स्वीकार क्यों कर लिया था ? क्या उस वक्त ' निस्सकड ' इत्यादि गाथाओं को राजेन्द्रसूरिजी भूल गये थे ? सच तो यह है कि वे उस वक्त यथार्थ समझ गये थे कि
"हमारा मत शास्त्रसंमत नहीं है, जिन शास्त्रों के पाठों से हमने यह मत चलाया है उन पाठों का मतलब ओर है, हमने उन का अर्थ करने में भूल की है, पर अब तो हो ही क्या सकता है, जिस वार्ड में अनेक अज्ञानि भेड़ों के टोले भर गये हैं; उन को पीछा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org