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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
___ " एतयोर्भावार्थः-साधवश्चैत्यगृहे न तिष्ठन्ति, अथवा चैत्यवन्दनान्ते शक्रस्तवाद्यनन्तरं तिस्त्रः स्तुतीः श्लोकत्रयप्रमाणाः प्रणिधानार्थं यावत्कथ्यन्ते-प्रतिक्रमणानन्तरमंगलार्थं स्तुतित्रयपाठवत्-तावञ्चैत्यगृहे(स्थानं ) साधूनामनुज्ञातं निष्कारणं न परतः ॥" .
इस भावार्थ से यह भी राजेन्द्रमूरिजी का कथन-कि 'ये दोनों गाथाएं चैत्यवंदनविधिप्रतिपादक हैं'-उड गया, क्यों कि चैत्यवंदनविधिप्रतिपादक नहीं किंतु विना कारण जिनमंदिर में रहने का निषेध करने वाली पूर्वोक्त गाथाएं हैं । यह वात वादिवेताल श्री शान्तिमूरिजी' ने चैत्यवंदनमहाभाष्य में अच्छी तरह स्पष्ट की है, पाठ यह है,
" भणइ गुरू त सुत्तं, चियवंदणविहिपरूवगं न भवे । __ निकारणजिणमंदिर,- परिभोगनिवारगत्तेण ॥"
अर्थ-गुरु कहते हैं । तिनि वा' इत्यादि मूत्र विनाकारण जिनमंदिर में नहीं ठहरना इस बात को कहने वाला होने से चैत्यवंदनविधि का प्ररूपक नहीं है।
त्रैस्तुतिकों का दूसरा स्वमतपोषक प्रमाण
" निस्सकडमनिस्सकडे चेइए सव्वहिं थुई तिण्णी । वेलं व चेइयाई नाउं एक्वेकिआ वावि ॥" ___ यह गाथा है, परंतु यह भी उन की पूर्ण भूल है, यह गाथा चैत्यपरिपाटी (परिवाडी ) के समय में चैत्यवंदनविधिदर्शक है, इस का मतलब यह है कि
"एक जगह पूर्ण चैत्यवंदन कर लेने के बाद और सब मंदिरों में भगवदगुणवर्णक मंगलरूप तीन श्लोक कहाँ चाहिये, यदि मंदिर
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