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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
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जाय तो तीन थुई कर्षन करे जाव थुई तीन सिलोक की तहां तक तहां चेत्य में मुन्यो को आज्ञा हे कोई कारण होय तो अधीक भी रहे "
मुझे दिखलाने की जरूरत नहीं की यह अर्थ कैसा गड़बड़ है। इन का असली अर्थ क्या है सो टीका से समझ लीजिये,
__ " श्रुतस्तवानन्तरं तिस्रः स्तुतीस्त्रिश्लोकिकाः श्लोकत्रयप्रमाणा यावत् कुर्वते तावत् तत्र चैत्यायतने स्थानमनुज्ञातं, कारणवशात् परेणाप्युपस्थानमनुज्ञातमिति ।"
अर्थ-श्रुतस्तव (पुक्खरवरदीवढे ) के बाद तीन श्लोक प्रमाण तीन स्तुतियां कही जायं तब तक मंदिर में ठहरने की आज्ञा है कारणवश ज्यादा ठहरने की भी आज्ञा है।
भावार्थ इस का यह है कि साधु जिनमंदिर में नहीं ठहरते अथवा, प्रतिक्रमण के अंत में मंगल के निमित्त ' नमोऽस्तु वर्धमानाय' या 'विशाललोचन' की मवाफिक चैत्यवंदन के अंत में प्रणिधानार्थ तीन श्लोकात्मक स्तुति कही जाय तब तक साधुओं को मंदिर में ठहरने की आज्ञा है, कारण विशेष में जयादा भी ठहरना अनुज्ञात है निष्कारण नहीं।
इस से साफ जाहिर है कि पूर्वोक्त व्यवहारभाष्य की गाथाओं का अर्थ यह नहीं है कि चैत्यवंदन में तीन थुई करना किंतु 'चैत्यवंदन के अन्त में प्रणिधानार्थ तीन श्लोक कहे जायँ तव तक मंदिर में ठहरना विना कारण जयादा नहीं' यह उन गाथाओं का तात्पर्यार्थ है।
यही तात्पर्य आचार्य धर्मघोषसरिजी ने 'संघाचार ' नामकी चैत्यवंदनभाष्य की टीका में स्पष्ट रीतिसे दिखाया है, वह पाठ यह है
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