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त्रिस्तुतिक- मत-मीमांसा ।
दर्जे वाले की स्तुति कर सकता है, अगर लेखकमहोदय यह शंका करेंगे कि इन पाठों में कहीं कहीं तो 'प्रशंसा' और श्लाघा ' शब्द हैं इनका अर्थ ' स्तुति ' क्यों लिखा ? तो उत्तर यह है कि प्रशंसा, श्लाघा, स्तुति विगैरह सब शब्द एकार्थक हैं। ' षोडशक' - टीका में यशोभद्रसूरिजी ने प्रशंसा का अर्थ ' स्तुति ' किया है, यथा
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" प्रशंसन्ति स्तुवन्ति "
विवेकमंजरी प्रकरण - टीका में भी 'प्रशंसा' शब्द का अर्थ ' स्तुति' किया है,
" प्रशंसा-स्तुतिः यानी प्रशंसा नाम स्तुति का है ।
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- ( विवेकमंजरी पृष्ठ २१३ )
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'श्लाघा' शब्द का भी ' स्तुति' अर्थ इसी प्रकरण की टीका में किया है, जैसे
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श्लाघ्याः स्तुत्या: " ( विवेकमंजरी - टीका - पृष्ठ २०८ ) इन सब प्रमाणों से साफ साफ यह सिद्ध होता है कि चाहे कोई भी किसी की भी स्तुति कर सकता है, करनेवाला चाहे वडा हो या छोटा, और जब यह सिद्ध हो गया कि सामायिक या पौष किसी में भी चतुर्थ स्तुति करने का दोष नहीं, तो लेखकों की यह कुयुक्ति कैसे चल सकती हैं कि सावद्ययोग का प्रत्याख्यान करने बाद चतुर्थ स्तुति करने में आश्रव लगता है ? |
फिर लेखकों का कथन कि
" श्री प्रमोदविजयसूरिजी तथा श्री कल्याणविजयजी भी तीन थुई तथा चार थुई के दोनो देववंदन अपने २ अवसर पे करते कराते थे. "
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