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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
(समानधर्मी) का भी वंदनाप्रमुख विनय अच्छी तरह करना चाहिये। "साहम्मियमित्तस्सवि भणियं किर वंदनाईयं "
(धर्मरत्नप्रकरण गाथा ८१ । ) अर्थ-साधर्मिमात्र का भी वंदनादि करना कहा है।
" जिनेन्द्रशासने भक्तिं, यः कश्चित् कुरुते जनः । आनन्दजलपूर्णाक्षस्तमहं बहुशः स्तुवे ॥ "
(उपमितिभवप्रपञ्चा--प्रस्ताव ३) . अर्थ-जो कोई भी प्राणी जिनशासन के विषे भक्ति करता है उसकी मैं आनंदाश्रुपूर्णनेत्र वाला हो के वारंवार स्तुति करता हूं।
" भूरिगुणा विरल च्चिय, इक्कगुणो विहु जणो न सव्वत्थ । निदोसाण वि भदं पसंसिमो थोवदोसे वि ॥"
__ (धर्मरत्न-प्रकरण ) अर्थ-बहुतगुण वाले तो विरले ही हैं पर एक गुणवाला भी मनुष्य सब जगह पर नहीं है, इस लिये दोषरहितों का भी कल्याण हो, थोडे दोष वालों की भी हम स्तुति करते हैं। . " तामेवारीं स्तुवे यस्या धर्मपुत्रो वृषासनः । "
(समरादित्यसंक्षेप पृ० ७) अर्थ-उस आर्या ( साध्वी ) की मैं ( प्रद्युम्नसूरि ) स्तुति करता हूं; जिस का धर्मपुत्र ( हरिभद्रमरि ) धर्मधुरंधर हुआ है ।
प्रियपाठकगण ! इन सब शास्त्रीय वचनों से आप को पूरी तसल्ली हो गई होगी कि उच्च अधिकार वाला भी अपने से छोटे
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