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________________ त्रिस्तुतिक-मत- मीमांसा । (स्तुति ) करते थे, लेखक महाशय सोचें कि त्रयोदशगुगस्थानकवति तीर्थकर श्रीमहावीर देव को यह मालूम नहीं था कि मुझ से हीन दर्जे के इन लोगों की मैं स्तुति क्यों करूं, पर यह बात उन के ज्ञान में भास रही थी, वे जानते थे कि चाहे जैसा नीचे दर्जे का जीव हो उस के सद्गुणों की प्रशंसा करने में कुछ भी दोष नहीं, उलटा गुण है, गुणी के गुणों की प्रशंसा करने से वह अपने विद्यमानगुणों को दृढ करेगा, इतना ही नहीं, दूसरे अनेक गुणों को-जो उस वक्त उस में नहीं हैं-प्राप्त करने की इच्छा प्रबल होगी, और क्रमशः अनेक शुभगुणों का स्थान बन जायगा । जो मनुष्य इषवश हो कर गुणी के गुणों की कदर नहीं करता, उस की तारीफ नहीं करता उसे शास्त्रकार ' अनार्य ' जैसे नीच शब्द से पुकारते हैं। पाठकमहाशय ! निम्नलिखित जैनशास्त्रों के पाठ भी देखलीजिये कि शास्त्र क्या रास्ता बता रहा है और त्रस्तुतिकसमाज किस कुपंथ पर चल रहा है। " गुणान् गुणवतां ये न, श्लाघन्ते मत्सरान्नराः । क्षुद्रा रुद्रार्यवत्प्रेत्य, ते भवन्त्यतिदुःखिताः ॥" (दानकल्पद्रुम-तृतीयस्तवक । ) अर्थ-ईर्षा के मारे जो पुरुष गुणवानों के गुणों की स्तुति नहीं करते हैं वे रुद्राचार्य की माफिक परभव में बहुत दुःखी होते हैं। " एषा भगवतामाज्ञा, सामान्यस्यापि सुन्दरम् । कार्यः साधर्मिकस्येह, विनयो वन्दनादिकः ॥ " ( उपमितिभवप्रचंचा कथा-प्रस्ताव ५ पृष्ठ ७५८ ।) अर्थ-यह भगवन्तों की आशा है कि सामान्य साधार्मिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003120
Book TitleTristutik Mat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherLakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara
Publication Year1917
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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