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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
वे यों नहीं कहते थे कि सम्यग्दृष्टिदेव की स्तुति करने ते सम्यक्त्व मलीन हो जाता है या सामायिकादिक में चतुर्थस्तुति करने से आश्रय लग जाता है।
लेखकों की कुयुक्ति यह है कि---
" सावजं जोगं पञ्चकखामि-कर के बैठने के बाद चतुर्थ स्तुति करने में सावध लगने से पूर्वप्रतिपन्न व्रत में दोष ( अतिचार ) लगता है" . इस का उत्तर यह है कि चतुर्थ स्तुति में लेखकजी किस बात का दोष मानते हैं ? क्या उस में पापोपदेश है या धनपुत्रादि पौदगलिक सुख की प्रार्थना की जाती है ? कहा जाय कि यह तो कुछ नहीं, तो फिर यथास्थितगुणवर्णनात्मक स्तुति में दोष किस बात का समझते हैं ?
यदि कहेंगे कि पंचम-षष्ठ गुणस्थानवर्ति श्रावक साधु अपने से हीन दर्जे के याने चतुर्थ गुणस्थान वाले देवताओं की स्तुति कैसे करें ? तो जवाब यह है कि गुणप्रकाश करने में अधिकार नहीं देखा जाता, राजा अपने गुणिमंत्रि की गुणस्तुति करता है, इस से यह नहीं कहा जा सकता कि राजा का अधिकार कम है।
गुणी के गुण की प्रशंसा-स्तुति करने में भी लेखक जी यदि दोष मानते हों तब तो उन के शिर बड़ी आपत्ति की शिला गिरेगी, इस मान्यता से तो भगवान् श्रीमहावीर देव भी दोषित रहरेंगे, क्यों की गुणप्रंशसा तो भगवान आप भी करते थे, सुलसा श्राविका के धर्मानुराग की आप ने कई वक्त स्तुति की थी, आनंद, कामदेवादि दृढधार्मि श्रावकों की आप वार वार तारीफ
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