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________________ ४४ त्रिस्तुतिक- मत-मीमासा ।। तक चली आती है तिसमें संवत् ( १२५० ) में श्री सौधर्मसिद्धान्तिकगच्छ में से आगमिक मतोत्पत्ति के करने वाले श्री शीलभद्राचार्य हुये तिन्हों ने सर्वथा चोथी थुई उत्थाप के एकान्त तीन थुई के देववंदन स्थापन किये तो ' तीन थुई का एक नया ही शास्त्रविरुद्ध मजहब राजेन्द्रिसूरि जी ने ही निकाला है यह लेख छपवा के जेनभिक्षुजी ने दही के बदले कपास भक्षण किया है ! क्यों कि राजेन्द्रसूरिजी तो सामायिक सहित प्रतिक्रमण पोसहादिक भावपूजा जो भावस्तव चारित्रानुष्ठान में तीन थुई के देववंदन करते कराते थे और द्रव्य पूजा जो (द्रव्यस्तव दव्यानुष्ठान में चार थुई के देववंदन करते कराते थे तैसे ही उन के पूर्वाचार्य श्री प्रमोदसूरिजी तथा श्रीकल्याणसूरिजी प्रमुखों भी तीन थुई लथा चार थुइ के दोनों देववंदन अपने २ अवसर पे करते कराते थे" में नहीं समझ सकता कि तीनथुई वालों को झूठ पर इतनी प्रीति क्यों है ? वे बात बात में ऐसी डींग क्यों मार देते है ? क्या इसी में उन्हों ने धर्म मान लिया है ? क्या वे यही समझते हैं कि इस प्रकार असत्य का आश्रय लेने ही से हमारा मत चलेगा ? , नहीं, यह कदापि नहीं हो सकता, जलपोष्य वृक्ष कभी अग्नि से भी नवपल्लव हो सकता है ? जिस का मूल ही सत्य है वह धामिक मत असत्य से कब टिक सकता है ! उलटा उस से तो उसका सत्यानाश हो जायगा । लेखक जी ने महानिशीथ का नाम तो लिख दिया पर इस से यह सिद्ध कर सकते हैं कि ' सामायिकसहित पौषध प्रतिक्रमण में निरंतर तीन थुई के देव वंदन करना ? ' क्यों कि उस में तो चैत्यवंदन के सूत्रों के उपधान का विधि लिखा है, स्तुति का नाम मात्र भी नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003120
Book TitleTristutik Mat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherLakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara
Publication Year1917
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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