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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
पद वियां धारण कर श्वेताम्बराचार्य गुरु के हुकुम में वर्ता तब ही जैन शास्त्रों के न्याय से साधु आदि आचार्य सूरिपद धारी श्रीवीरपरंपरा के कहे जाओगें नहीं तो मनोमतिकल्पित पाट परंपरा के ही कहे जाओगें इस में शक्क नहीं'
यहां पर जैनभिक्षु लेखकों को यों कहेगा कि इस मुजब तुम को ही वर्तना जरूरी है, क्यों कि जैनभिक्षु के तो गुरु अंधे नहीं हैं और न उस की परंपरा कल्पित है, अंध-बन्ध
और कल्पित-बल्पित सब आप के ही सुपुर्द है इन को स्थान देने की कीर्ति आप ही को प्रिय हो । पर मेरी राय है कि आप को भी इन को आश्रय देना सभ्यताविरुद्ध है इस लिये आप को चाहिये कि भावान्ध्यव्याप्त अपने गुरु की अंध श्रद्धा और कलित परंपरा के पोछे जल्दी जलांजलि दे कर द्रव्य क्षेत्र काल और भाव पर लक्ष्य रख कर के चलने वाले किसी जैनाचार्य या मुनि की शरण में जाओ ! ता कि आप की श्रद्धानौका भवसमुद्र में डूबती अटक जाय और सकुशल आप को पार कर दे।
फिर लेखक महाशय अपनी अक्ल दौड़ाते हैं कि
" भावस्तव जो श्री महानिशीथोक्त साधुओं को चरित्रानुष्टान और श्रावकों को सामायिक सहित पौषध प्रतिक्रमण में निरंतर तीन थुई के देववंदन तथा (द्रव्यस्तव ) जो साधुओं को प्रतिष्ठा, शांतिस्नात्रादिक के अवसर वासक्षपादिक और श्रावकों को प्रतिष्ठा शांतिस्नात्र और निरंतर निवृत्तिगामिनी पूजा जो अष्ट द्रव्यादिक के अवसर श्री व्यवहारभाष्यादि, जैनपंचांगी सूत्रोक्त तीन थुई की तथा चार थुई की देववंदना श्री तीर्थंकरगणधरादिक से आज
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