________________
४२
त्रिस्तुतिक-मत--मीमांसा ।
mmmmmmmmmmm..........
में लाना भी दूषित नहीं, तो लेखकों की क्या शक्ति जो इस को अप्रमाण कर दें।
'आचार्य गुरू के दिये विना अपने २ रागी गृहस्थों के पास आचार्य ( सूरि ) पद घर घर में धारण कर रहे हैं।'
यह लिखना तो लेखकजी के आचार्यों के ही शिर सवार होता है, क्यों कि आप के गुरु और दादागुरु इसी प्रकार
आचार्य बने थे, अथवा इस से भी हीनरीति से, क्यों कि 'राजेन्द्रसरिजी' तपागच्छ के श्रीपूज्य श्रीधरणेन्द्रसूरिजी' की चपेटा देवी के प्रसाद से स्वयं आचार्य ( श्रीपूज्य ) बन बैठे थे, किसी भी आचार्य गुरु ने उन्हें आचार्यपद नहीं दिया, और धनविजयजी भी अपने ही मुखसे' धनचंद्रमूरि' बन बैठे । क्यों कि इन के गुरु ने तो कभी से इन्हें अपने गच्छ से दूर कर दिया था तो आचार्यपद की तो बात ही कहां ? | सं. १९६२ में जब राजेन्द्रमूरिजी का देहांत हो गया तो १९६४ की साल में आपने मालवे में जा कर अपने रागी गृहस्थों से आचार्यपद धारण किया । लेखक जी! ' अपने रागी गृहस्थों के पास आचार्यपद घर घर में धारण कर रहे हैं ' यह आप का कथन आप के ही गुर्वादिकोंने चरितार्थ किया या नहीं ?।
फिर लेखक लिखते हैं कि ....
"जैनभिक्षुजी को तथा जैनभिक्षुजी के पक्षियों को चाहिये कि अपने अंध गुरु की अंध श्रद्धा तथा कल्पित परम्परा छोड के अभी वर्तमान में देश, काल, अनुमान प्रमाणे संयम ( चारित्र ) को धारणे वाले कोइ श्वेताम्बराचार्य भावाचर्य जी का गुरु पद धारण कर पीछे वडी दीक्षा योग वहनादि क्रिया करके आचार्य उपाध्याय प्रवर्तक स्थविर रत्नाधिक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org