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त्रिस्तुतिक मत-मीमांसा ।
और जव प्रमोदविजयजी को ही पाट की प्राप्ति नहीं हुई तो उन के शिष्य राजेन्द्रसूरिजी को उस की आशा ही क्यों रखनी चाहिये।
फिर लेखक जी का बयान है कि...
" जैनभिक्षुजी की गुरु परंपरा में तो एलियाम्बर, काथियाम्बर, पीताम्बर, कुलिंगवस्त्र धारण करने की आज्ञा न तो कोई आचार्य ने दी है ! और न कोई लिंग (वस्त्र ) बदलानेवाला आज दिनों तक आचार्य हुये हैं ! तो भी वर्तमान में आचार्य गुरू के दिये बिना अपने २ रागी गृहस्थों के पास आचार्य ( सरि ) पद घर घर में धारण कर रहे हैं तो यह कल्पित पाट परंपरा से जुदी ! जैन शास्त्रों के न्याय से
और कल्पित पाट परंपरा कौनसी कही जायगी! अपितु ! यह पीताम्बर ( पीलावस्त्र ) धारियों की ही कल्पित परंपरा कही जायगी. "
लेखकों ने कब देखा कि जैनभिक्षुजी की गुरु परंपरा में एलियाम्बर या कुलिंग वस्त्र धारण किये जाते हैं ? । यदि कत्थे आदि पदार्थो से विवर्ण किये हुए वस्त्रों को भी लेखक कुलिंग समझते हों तो यह आप गंभीर भूल करते हैं, निशीथचूर्णि के प्रमाण के साथ पहले सिद्ध कर चुका हूं कि नये वस्त्रों का वर्ण बदलना शास्त्र-खिलाफ नहीं बल्के शास्त्रप्रतिपादित-विधिविषय है, लेखकमहोदय उस स्थल को ध्यान के साथ फिर एक दफे पढ़ लेवें ।
लेखकों का यह कथन भी असत्य है कि न कोई लिंग ( वस्त्र ) बदलाने वाला आज दिनों तक आचार्य हुये है ' जब मूत्रकारों ने यह सिद्धान्त कर दिया कि · श्वेतमानोपेत-जीणप्राय वस्त्र साधुओं का अकारणिक वेश है तथापि इस प्रकार के वखों की अप्राप्ति में नये वस्त्रों का वर्ण बढल के उन्हें उपभोग
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