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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
स्थिति तो पहले की है पर आज कल की दशा तो इस से भी बुरी हालत में है, वर्तमान में राजेन्द्रमूरिजी का जो क्षुद्रपरिवार है उस के भी दो दल हो चुके हैं. क्रियाविषयक भी बखेडा कम नहीं है, गच्छ बाहर करने कराने की भी परस्पर में तैयारियां हो रही हैं, इन सब का कारण और कुछ नहीं सिर्फ भीतरी पोल है, कितनेक धनविजयजी का कथन शास्त्रप्रमाणयुक्त मानते हैं तब दूसरे राजेन्द्रमूरिजी की क्रिया को ही सर्वज्ञभाषित समझते हैं, इस का नतीजा यह आया कि अकाल ही त्रैस्तुतिकों के घर में यादवा स्थली मच गई।
इस मत वालों की थोडे ही काल में यह दशा क्यों हुई ? इस बात को समझना अब कुछ कठिन नहीं है, आप सोच सकते है कि नापायेदार इमारत ज्यादा वक्त तक नहीं टिक सकती, जिस मत का जन्म ही शास्त्रनिरपेक्ष-राग द्वेष से हुआ है, जिस के जन्मदाता राजेन्द्रमूरिजी आप ही अव्यवस्थित चित्त थे उस निर्बल मत को ग्रहण करने वालों की यह दशा होवे इस में आश्चर्य ही क्या है ? । आप निश्चय समझिये कि दुर्दशा तो क्या थोडे ही वर्षों में इस की परिसमाप्ति की कथा भी शायद आप सुन लेंगे।
लेखक जी ! मेरा यह कथन यदि असत्य हो तो मुझे कह दीजिये, आप के वर्तमानाचार्यजी की कपट-पटुता, प्रपंच जाल और असत्य वादिता मेरे कहने से भी दो कला अधिक है या नहीं ? । इस का उत्तर 'हां' सिवा किसी अक्षर से आप नहीं दे सकोगे।
जब आप के वर्तमानाचार्य जी की भी यह दशा है तो ऐसा कौन हृदयशून्य होगा जो उन के कथन पर विश्वास धरेगा!;
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