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________________ त्रिस्तुतिक--मत-मीमांसा । (धनवि० कृत-देववंदननिर्णयपताका-प्रस्ताव ४ पृष्ठ ३९) " अपने मनमानी कल्पना की समाचारी करने वाले एकांत हठग्राही सूरिजी को +++" “ मूरिजी तो अपनी मनकल्पना का हठ के जोर से ( सम्मदिट्ठी देवा ) का एकांत निर्वद्य पाठ को एकांत सावद्य ठहरा के इस पाठ का उत्थापन कर के ओर चोथी थुइ का सर्वथा उत्थापन कर पूर्वधर तथा बहुश्रुतो की पंचांगी आद्य ले अनेक ग्रन्थों का पाठ उत्थापन करते अनेक पूर्वधर तथा पूर्वबहुश्रुतो की आशातना करने में रक्त हो रहे है " (धनवि० देव नि० ५० प्रस्ताव ४ पृष्ठ ५-६) " वंदिता सूत्र का पाठ उत्थापन कर यह भव पर भव बिगाड कर वृथा संसार वधारने की क्यों उमेद रखते हो ? " (धनवि० देव० नि० ५० प्रस्ताव ४ पृष्ट १५) पाठकवृंद ! ऊपर दिये हुए फिकरे लेखकों के वर्तमानाचार्य धनविजयजी रचित 'वेदवंदननिर्णयपताका' नामवाली किताब के हैं, धनविजयजी का अपने गुरु राजेन्द्रमूरिजी के साथ कैसा वर्ताव था इस बात का पता इन फिकरों से अच्छी तरह लग जाता है, इस वक्त राजेन्द्रमूरिजी के पटधर होने का दावा करने वाले धनविजयजी ने पहले राजेन्द्रमूरिजी के ऊपर कैसे कठोर वाग्बाण बरसाये हैं इस गूढ बात को प्रकाशित करने के लिये उपर्युक्त फिकरे दीपक तुल्य हैं, वैस्तुतिकों के भीतर ही कितनी फाटफूट है इस बात के भी पूर्वलिखित फिकरे साक्षी समझने चाहिये। पाठक ! तीनथुई वालों के घर में कितनी पोल है यह बात अब तो आपकी समझ में आ ही गई होगी, इन लोगों की यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003120
Book TitleTristutik Mat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherLakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara
Publication Year1917
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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