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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
ता से कितने दूर थे इस बात का निर्णय तो आप लोग अब भी आहोर के वृद्ध मनुष्यों को जो उन के समकालक या उनकी प्रवतैना के देखने वाले हैं पूछ के कर सक्ते हैं, पर लेखकजी ! आप के वर्तमानाचार्य जी की देखी भाली बातको तो कोई भी बुद्धिमान् मनुष्य नहीं मानेगा, क्यों कि आप के वर्तमानाचार्य जी की करतूतों से सब कोई वाकिफ है। मेरी समझ में तो ऐसे जाली आदमी जगत में विरले ही होंगे।
लेखक जी! वे ही आप के वर्तमानाचार्य जी है न ? जिन्हों ने राजेन्द्रमूरिजी के गुरुपद को मन बचन और काया से त्याग दिया था। प्रियपाठक ! देख लीजिये लेखकों के वर्तमानाचार्य जी की करतूत, अब जो राजेन्द्रमूरिजी और उन के गुरु-यति प्रमोदविजयजी को आचार्य सिद्धकरने की कोशिश कर रहे हैं उन्हीं धनविजयजी ने राजेन्द्रमूरिजी के साथ किस प्रकार का व्यवहार किया था। यह बात भी जानने योग्य है, अत एव इस विषय को उन्हीं के पुस्तकों के कुछ फिकरों से विशद किया चाहता हूं, आशा है मेरे इस विचार को आप अस्थान न गिनेंगे ।
“जब तक श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजी के और मेरे जैन सूत्रो की श्रद्धा प्ररूपणा में भेद नही था तब तक तो मेरे दीक्षोपसंपद् ( क्रियोद्धार ) गुरु शिर के मुगट समान थे और अब सूर्योदय लिखने लिखाने वाले के लेख देखते श्रुत स्थिविर ( पूर्वधर ) तथा बहुश्रुतो के किये जैनसूत्रो की उत्थापक बुद्धि राजेन्द्रसूरिजी की ज्ञात होने से जब तक यह उत्थापक बुद्धि रहेगी तब तक त्रिविध मन वचन काया से तिन्का गुरु पद को वोसराता हूं और विद्यमान जंगमजुगप्रधान श्री विजयसूरिराजेन्द्र जी महाराज का गुरु पद को खिकार करता हूं" .
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