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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
फिर लेखक जी अपनी झूठी करतूत दिखाते हैं कि
" इत्यादि उनकी ( प्रमोदविजयजी की ) यति ( साधु ) की प्रवर्तना हमारे वर्तमानाचार्य 'श्रीविजयधनचंद्र सूरिजी' ने आंखों से देखी हुई सब श्वेताम्बर संघ में प्रसिद्ध है. तिन के पाटपर ' इग, बी, ती, गुरुपरंपर कुसीले ' अर्थात् श्रीमहानिशीथोक्त सिद्धान्त वचन से एक दो पाट परंपरा का कुशील को त्याग के क्रियोद्धार रूप ' श्री जिन शासन के प्रभाव के करने वाले यह प्रभावकाचार्य श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजी हुये "
मैंने पहले ही यह कह दिया है कि प्रमोदविजयजी की प्रवर्तना साधुपन की नहीं थी किंतु पतित थी, मैं क्या तुम खुद एक दो पाट परंपरा का कुशील को त्याग के' इन वचनों से सिद्ध करते हो कि 'यति कल्याणविजयजी और प्रमोदविजयजी में कुशीलपन था इस लिये उसको त्याग के राजेन्द्रमूरिजी ने क्रियोद्धार किया, ' इस प्रकार जिन को लेखक कुशील मानते हैं उन्हीं को राजेन्द्रमूरिजी के पाट परंपरा के आचार्य मानना ? कुशील को आचार्य ठहराने वाले खुद ही कुशील क्यों न माने जायँ ?।
लेखक जी ! कुशीलियों को आचार्य मानने वाले आप लोगों की बुद्धि किस पाताल में चली गई है ? कुछ तो सोचो ! जिन को अपने मुख से कुशीलधारी कह रहे हो उन्हीं को आचार्य कहते हुए तुम को असत्य का डर तो नहीं, पर लज्जा भी नहीं। अफसोस ! यही असत्यपोषण-यही अंधश्रद्धा जैनों को उन्नति के शिखर से गिरा रही है ।
पाठकगण ! प्रमोदविजयजी की क्या स्थिति थी वे साधु
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