SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रिस्तुतिक- मत-मीमांसा | Į लेखक जी ! यही यतिजी आप के राजेन्द्रसूरिजी के दादा गुरु और गुरु थे न ? | इन्हीं को आप आचार्य बनाने की चेष्टा करते हैं न १ । अच्छा ! पर यह तो कहो कि त्रिस्तुतिका मत निकालने के बाद आप के राजेन्द्रसूरिजी का नामोच्चारण भी प्रमोदविजयजी ने अपने मुख से किया था ? । वे तो यों कहते थे कि ' मेरा शिष्य कुशिष्य हो गया ' इस मुजब कहने में कारण दो थे, एक तो यह कि वे साधुपन नहीं पाल सकते थे तो भी सनातनजिनमार्ग के पूरे पक्षपाती थे। दूसरा यह कि मोहनविजय नाम का उन का शिष्य जो बचपन से ही पाल कर मोटा किया था उसे फुसला कर रत्नविजयजी (राजेन्द्रसूरिजी ) ने ले लिया था । बस इन्हीं दो कारणों से प्रमोदविजयजी आप के राजेन्द्रसूरिजी से पूरी घृणा करते थे, यहां तक कि उन का नाम तक अपने मुंह नहीं लाते थे। इतना होने पर भी क्या कारण कि लेखक और इन के अनुयायी लोग प्रमोदविजयजी को जबरदस्ती से आचार्य बना रहे हैं ? | ३६ लेखकों ने अपने राजेन्द्रसूरिजी की पाट परंपरा के लिये जो विस्तार सहित पराल लिखा है वह कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, उस में लेखकों के बुड्ढे गुरु की गप्पगीता का ही मात्र श्रवण है, जैसे " " (पं) अमुकविजयजी गणी, अमुकस्तक याने पं. प्रमोदविजय गणी कल्याणस्तक ऐसा ( १ ) रत्नाधिक का बोलना लिखना होता है " पाठक महोदय ! देख लीजिये गप्पगीता का नमूना 'स्तक' इत्यादि अशुद्ध शब्द ही इन के इस कथन को गमगीता सिद्ध करते हैं या नहीं ? | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003120
Book TitleTristutik Mat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherLakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara
Publication Year1917
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy