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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
इस आप के ही लेख में कही हुई ४ चीजों के वे त्यागी थे कि भोगी ? | आप ही के इस कथनानुसार वे मूरिपद के योग्य सिद्ध हो सकते हैं या नहीं इस का प्रमाण के साथ उत्तर देवें ।
तात्पर्य यह है कि कल्याणविजयजी और प्रमोदविजयजी सामान्य यति थे, वे न तो विद्यावान् थे और न क्रियावान् , उन के वही हाल थे जो आज कल के द्रव्योपासक यतियों के हैं, हां यह उन में शायद विशेषता होगी कि रुपयों के लिए विवाहादि सांसारिक उत्सवों में वे रोते न फिरते होंगे, परंतु उन में साधुवृत्ति थी यह तो कोई भी असत्यभीरु नहीं कहेगा और विचार शील मानेगा। साधुवृत्ति कहां ?, साधुओं में तो मूल और उत्तर गुणों की सत्ता चाहिये, कदाचित् कारणवश किसी उत्तरगुण में मवलना हो जाय तो भी उस की प्रायश्चित्तादिद्वारा जल्दी शुद्धि कर ली जाती है, और उस के मूलगुण तो सर्वदा अखंडित ही रहते हैं । कोई भी भवभीरु ऐसा नितान्त झूठ बोलने का साहस नहीं करेगा कि यति कल्याणविजयजी और प्रमोदविजयजी में इस मुजब साधुपन के गुण थे। वे त्रस थावर के प्राणातिपात को टालते नहीं थे, झूठ नहीं बोलने का तनिक भी व्रत वे पाल नहीं सकते थे, अदत्तादान की विरति से वे कोशों दूर वसते थे, मैथुनविरमण का भी बुरा हाल था, हां, यह बात मान सकते हैं कि जिस प्रकार गृहस्थों का निःशंक व्यवहार होता है उस मुजब इन के यहां न होता होगा, और परिग्रह की तो बात ही क्या; इस से तो उन के सब काम ही सिद्ध होते थे, इस का त्याग तो उन्हें प्राणत्याग तुल्य था।
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