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________________ ३४ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । कर फूले नहीं समाते और बोलने लगते हैं कि 'ओ हो ! राजेन्दरमूरिजी बापजी कतरो मोटो गरंथ बणायो है ' पर उन बेचारे भोले भाले मारवाडियों का इसमें क्या दोष ! उन को तो उपदेश ही इस प्रकार का मिलता है कि ' राजेन्द्रसूरिजी ने पैंतालीस आगमों की पंचांगी का सार लेकर राजेन्द्रकोष बनाया है' इस बातको वे बेचारे अज्ञानी गृहस्थ लोग क्या जाने कि ४५ आगमों की पंचांगी का तो नहीं परंतु 'वाचस्पत्य-वृदभिधान' जो कलकत्ता के वैष्णव पंडित 'तारानाथ तर्कवाचस्पति' का बनाया हुआ है उस का सार लेकर इस को ब्राह्मण पंडितों ने बनाया है। खैर इस विषयका प्रकाश अब बहुत हो गया एक साथ सारी पोल खोलने से लेखकों को सह्य न होगी, फिर आगे किसी प्रकरण में अवशिष्ट भाग की भी चर्चा की जायगी। आगे लेखकजी ने हीरविजयमूरिजी का लिखा हुआ पंन्यासपदयोग्यताविषयक पट्टा लिख के यति कल्याणविजयजी और प्रमोदविजयजी को मूरि बनाने की चेष्टा की है, लेखकों से मेरा यह प्रश्न है कि आपके राजेन्द्रमूरिजी के दादागुरुजी और गुरुजी ने हीरविजयसूरिजी के पट्टे में लिखे मुजिब अभ्यास किया था ? और षण्मासिक भगवती का योगोद्वहन करके गणि पद प्राप्त किया था ?, या “सचित्त ( कच्चा ) अमि जल अंगना ( स्त्री) और नवविध परिग्रह इन को इन्द्रिय सुखादिक के हेतु आचार्य अपने अंगस्पर्श न करें अपनी नेश्रा ( आश्रय ) में न रखे तब तो यह सूरिपद भावाचार्य का रक्षक है, और पूर्वोक्त [ ४ ] चीजों से शिथिल (परिभोगी) होय, वे द्रव्याचार्य नामाचार्य कहलाते हैं. अर्थात् वे ( सूरिमंत्र ) सूरिपद के योग्य नहीं हैं " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003120
Book TitleTristutik Mat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherLakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara
Publication Year1917
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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