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त्रिस्तुतिक--मत--मीमांसा ।
वे किस योग्यता से कोष बना सकते हैं। यहां पर पाठकगण को यह शंका हो सकती है कि जब राजेन्द्रसरिजी की विद्वत्ता का यह हाल है तो वह कोष किसने बनाया जो 'अभिधानराजेन्द्र ' इस नाम से बोला जाता है ? तो उत्तर यह है कि वह कोष राजेन्द्रसरिजी ने अपने नाम से ब्राह्मणों के द्वारा तय्यार करवाया है - उन्हों ने खुद ने नहीं बनाया। यह बात कल्पित नहीं की संवत् १९३३ की साल से कोप की रचना होने लगी थी। कार्य ब्राह्मणों के हाथों से होता जाता था। बनाने वाले पंडितों की तनख्वाह और पुस्तकों आदि का प्रबन्ध राजेन्द्रमुरिजी कराया करते थे, यह बात उनके घर के भेद विश्वस्त आदमी के मुंह की है । दूसरा यह भी प्रामाणिक कारण हे कि--जब हमारा विहार काठियावाड से मारवाड़ की तर्फ हुआ-राजकोट की तर्फ से हमारा आना वढवान केम्प हुआ; वहां पर खरतरगच्छीय मुनि श्रीकृपाचन्द्र जी से मुलाकात हुई, दो रोज वहां पर ठहरना भी हुआ, दरमियान मेरे और महाराज श्रीकृपाचन्द्रजी के परस्पर त्रैस्तुतिको के बारे में इस प्रकार वार्तालाप हुआ.
श्रीकृपाचंद्रजी-' अभिधान राजेन्द्र ' कोप छप गया ? मैं----.' सुना गया है कि द्वितीय भाग छप कर तय्यार हो
गया है। श्रीकृ०---' इस में बहुत ही खर्च हुआ है । मै- हां हुआ तो ऐसा ही है, पर आप को इस बात की
जांच कैसे हुई ?' श्रीकृ०-'संवत् १९५८ की साल में गांव सियाणे में राजे
न्द्रमूरिजी से हमारा मिलना हुआ तब मैं ने उन से
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