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त्रिस्तुतिक--मत- मीमांसा ।
श्लोकों में १०० एक सौ अशुद्धियां प्रत्यक्ष दिख रही हैं-कलिकालसर्वज्ञकल्प, कलिकालसिद्धान्तशिरोमणि विगैरह अनेक उपाधियों की शिलाओं से क्यों दवा दिया ? इस भार से उसका हाडपिंजर चूरा हो जायगा इस बात को सोचने वाला तुम्हारे में कोई भी विद्यमान नहीं है ? अफसोस ! इसी अंधश्रद्धा और मूर्खता ने मनुष्य को उन्नति के मार्ग से भ्रष्ट कर दिया है, जब कोइ तरक्की के मार्ग में पैर रखता है तो उस के अंधश्रद्धालु भक्त झूठी वाह वाह से उसे इस प्रकार बड़ाई के शिखर पर चढ़ा देते हैं कि फिर वह तरक्की के शिखर पर पहुंचने की जरूरत ही नहीं समझता।
राजेन्द्रमूरिजी एक सामान्य आदमी थे उन्हें व्याकरण का ज्ञान बहुत ही कम था, साहित्यविषयक ग्रन्थ तो उन्हों ने बांचा ही शायद ही होगा, न्याय का ज्ञान तो उन से कोशों दूर था, जैन सिद्धान्त का भी उन्हें प्रशस्त बोध नहीं था, इन सब बातों का पता उन की अशुद्धियों से भरी हुई कृतियों से अच्छी तरह लगजाता है, मैंने ऊपर जो अशुद्धिपूर्ण राजेन्द्रमूरिजी के चैत्य वंदन-स्तुत्यादि लिखे हैं वही उन के परमसंस्कृत ग्रंथ हैं जो जो राजेन्द्रमूरिजी के बनाये हुए स्तोत्रादि हैं बस इसी नमूने के समझिये बल्के इस से भी ज्यादा अशुद्ध ! । आज तक इन का रचा हुआ एक भी स्तोत्र-चैत्यवन्दन ऐसा नहीं देखा कि जिस में ८-१० अशुद्धियां न हों, जैनभिक्षु ' का-'एक साधारण लेख लिखने में जिसने इतनी भूलें की हैं वे क्या कभी कोष बनाने की योग्यता रख सकते हैं ' यह लिखना अक्षरशः सत्य है, जिन में दो चार श्लोक बनाने की भी पूरी योग्यता नहीं पाई जाती
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