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त्रिस्तुतिक-मत- मीमांसा ।
हरति तामसं दुष्टमानिनाम् ॥ २ ॥ जनक हे तवैवाहमर्भको ददतु मे अंतः ज्ञानसंपदां। शुभदृशा मुखं वीक्ष मां विभो सुदुःखिनं सदा कातराबलं ॥ ४ ॥"
(जिनगुणमंजूषा-भाग १ पृष्ठ १७) " बंदामि वीरं मनसा संधीरं सिद्धं समृद्धं सुखंदं उमीरं ॥ देवाधिंदवं सुरराजवंद्यं भवाब्धियानं शिवदं अनिंद्यं ॥ १ ॥ चौवीस केवलधरा वरतीर्थनाथा आगामि कॉलि गतकालि तथा च सिद्धा वर्तन्ति विंशति विदेहविशालपन्थाः चैत्यानि तीर्थसम संति नमामि तेषां। सूत्रं गच्छेन्द्रसूतं शुभ अर्थयुतं साधुवगैंगृहीतं जीवा जीवादि तत्वैः चतुरतरगमैर्दुर्लभं यस्य तंत्र बौधादीनां निरीशं शिवसुरसुखदं शुद्धवैराग्य दीपं भक्त्या वन्दे धनमुनि जगमें सूत्र आज्ञा चलन्ति ॥ ३ ॥"
(जिनगुणमंजूषा-भाग १ पृष्ठ २९) । " अंगोवांगं सुचंगं जिनवरकथितं गच्छराजैः सुगुंफ पंचांगी रंग युक्तं सकलनयमयं चारनिक्षेपपुप्फ सुद्धाचारं सुगंधं मुनिहृदयधरं ईदृशं सूत्रहारं सिद्धं वंदे प्रमोदप्रसमयरुचिना सर्वविश्वस्य सारं ॥ ३ ॥"
(जिनगुणमंजूषा-भाग १ पृष्ठ ३५ ) पाठक महोदय ! राजेन्द्रमूरिजी की अलौकिक विद्वत्ता ! आप समझ सकते हैं कि जैनभिक्षु ने राजेन्द्रसरिजी को संस्कृत के निरक्षर लिखा सो झूठ नहीं है, ऊपर लिखे हुए संस्कृत श्लोक विगैरह त्रैस्तुतिकों के कालकालसर्वज्ञ राजेन्द्रसरिजी की कृति के हैं, श्लोकों के ऊपर लिखे हुए अंक क्या हैं समझे ? वे हैं अशुद्धियों के नंबर । वाहरे अंधभक्तो ! तुमने एक अतिसाधारण मनुष्य को-जिस के बनाए हुए ऊपर लिखित मात्र गिनती के
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