________________
२८
त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
सरिजी के मामूली स्तुति-चैत्यवंदनादि में भी अशुद्धियों के ढेर के ढेर दिख पडते हैं वे निरक्षर नहीं तो क्या साक्षर कहे जायंगे? हां यह बात तो हम भी समझते हैं कि जब तक मनुष्य छमस्थ होता है कहीं गृढ विषय में भूल भी जाता है पर किस प्रकार ? सारे ग्रन्थ में एकाद जगह, इस से ज्यादा हो तो समझ लो कि उसकी विद्वत्ता में ग्वामी जरूर है, तो जिन का विषय तो एक मामूली बातचीत है ऐसे चैत्यवंदनादि में भी बडी बडी अशुद्धियों की भरमार निरक्षरता विना कैसे हो सकती है ? । पाठक महो. दय ! लेखकों के परम आचार्य (! ) राजेन्द्रमरिजी को-जिन के लिए लेखक महाशय झूठी वकालत करते हैं-संस्कृत का बोध कितना था इस विषय को प्रस्फुट करने के लिये उनके बनाये हुए कुछेक संस्कृत चैत्यवंदन-स्तुत्यादि के फिकरे यहां पर उधृत कर दिखाता हूं, आप उन्हें गौरसे पढ़ें, देखिये कैसा अशुद्धियों का खजाना है, ___"अहं श्री आदिनाथो जर्गत जनपति: ज्ञानमूर्ति चिदात्मा देवेन्द्रादिप्रपूज्यो विविधसुखकरो लोककर्ता च हर्ता । कर्माणां धर्मराजो मुनिगणमनसि स्थैर्यता प्राप्तमानः, सो मे स्वामी समीशो हरतु कलिमलं कोर.. टेस्थी जिनेशः ॥ १ ॥
(जिनगुणमंजूषा प्रथम भाग-पृष्ठ २) " द्वीषे त्र श्री मंधरै तन्नमामि युगंधरं बाहुजिनैः सुबाहुँः । से धातकी खंड मितं सुजातं श्रेयप्रभं श्री वृषभाननं च ॥ १॥ अनंतवीर्य मुविशालनाथं सूरमभं वज्रधराभिधानं । चन्द्राननं नौमि च पुष्कराड़े श्रीचन्द्रबाहुश्च भुजंगनाथम् ॥ २ ॥ नेमिप्रभं चेश्वरनामधेयं श्रीवीरसेनं जिनदेवकीर्तिम् । वन्दे महाभद्रमजीतवीर्य निरंतरं संप्रति वर्तमानम् ॥३॥"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org