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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा |
जाता है, और तत्काल उस पुस्तक को हाथ से छोड देने की इच्छा हो जाती है, हां उन लोगों के लिए इस में अपवाद समझना चाहिये कि जो खुद अशुद्धियों के ही स्थान बने हुए और उसी में संतोष मानने वाले हैं, क्यों कि वे तो उसी में सार मानेंगे जैसे विष्ठा के कीडे विष्ठा में ।
पाठक गण ! मेरी पवित्र लेखनी तो एक भी कटु शब्द लिखते कांपती है, तथापि मुझे जी कड़ा कर के भी उन के लायक कटु तो नहीं लेकिन कुछ खट्टी दवा दिखानी पड़ती है इस लिये अज्ञानरोगग्रस्त लेखकों के दांत खट्टे हों तो वे मुझ पर कोप न करें क्यों कि यह मेरी प्रवृत्ति उन्हीं के हितके लिये है उन के चिरसंगी अज्ञानव्याधि का प्रतीकार ही मेरा उद्दिष्ट कार्य . है, और यह उन्हीं का हित साधन है ।
फिर लेखक बयान करते हैं कि.
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संस्कृतज्ञान के बिलकुल निरक्षर राजेन्द्रसूरि के नाम के पीछे उनके भक्त लोग क्या समज करके - कलिकालसर्वज्ञ, कलिकालसर्वज्ञकल्प ऐसे २ विशेषण लगाते हैं " इत्यादि (९-१० ) पंक्तियों तक अपनी बेसमझसे अपनी अज्ञता प्रगट करी है, लिखने खोदने वाले की तथा अपनी बेसमझ की भूल से राजेन्द्रसूरिजी को संस्कृतज्ञान के निरक्षर मानोगे तब तो दुनियाभर में सैकडौं हजारो से अधिक प्रतिमार्यो के लेख में अनेक लिखने खोदने वाले की भूल देखने में आवेगी तो क्या उन सर्व प्रतिष्ठाकारक आचार्य उदाध्ययादि पूर्वाचार्यों संस्कृतज्ञान के निरक्षर कहे जायगें ? नहीं २ कदापि नहीं कहे जायगें । "
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जैन भिक्षु का कहना कि राजेन्द्रसूरिजी संस्कृत ज्ञान के निरक्षर थे- यथार्थ ही है, भला तुम्हीं सोचो कि जिन राजेन्द्र
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