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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
भी प्रवृत्तिनिमित्त मानने वाले जगत में पैदा होने लगे हैं, लेखकजी महाराज ! कुछ न्यायशास्त्र का भी अभ्यास करो, किन शब्दों के कौन प्रवृत्तिनिमित्त होते हैं इस विषय का ज्ञान प्राप्त करो और शक्तिवादादि ग्रन्थों का भी मतलब हासिल कर लो, ऐसा कर के फिर किसी भी विषय का खंडन मंडन करने को तय्यार होवो, ताकि आप की बुद्धि जनसमाज में हास्य का कारण न होवे ।
(१०) इस अशुद्धि को भी लेखकजी लिखने खोदने वालों के शिर स्वार करते हैं, पर लेखकजी को सोचना चाहिये कि ढुंढक विगैरह-जो लोग प्रतिमा को नहीं मानने वाले हैं-यह कहेंगे कि सूत्रों में मूर्ति-पूजा का अधिकार सूत्रलेखकों ने भूल से लिख दिया है, या ' मूर्ति मानना नहीं' ऐसा अधिकार सूत्रों में था सो लिखने वालों के दृष्टिदोष से रह गया, तो क्या यह प्रलापयुक्तिशून्य कथन किसी भी बुद्धिमान् को मान्य हो सकेगा? नहीं, ऐसा हर्गिज नहीं हो सकता, विद्वान् लोग युक्तिशून्य बात में और मूर्ख की बात में कुछ भी फर्क नहीं समझते,
हो तब तो
" लिखने वाले और खोदने वाले की ये भूलें है" यह आप का कथन संगत भी हो सकता यदि राजेन्द्रमूरिजी को संस्कृत का ज्ञान होता और स्थान स्थान पर उन की अशुद्धियां दृष्टिगोचर नहीं होती, सो तो है ही नहीं, बडा ग्रन्थ तो बडी चीज है, पर, उन का बनाया हुआ छोटे से छोटा चैत्यवन्दन स्तुति या प्रशस्ति लेखादि भी देखते हैं तो उस में इतने अशुद्धियों के कीडे किलबिलाते हैं कि बांचने वाले का जी घबड़ा
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