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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
कहां से मिलेगी ! , ' सो रिपून् ' इस के स्थान में लेखक जी 'स्वरिपून ' ऐसा मान के शुद्ध ठहराते हैं लेकिन राजेन्द्रमरिजीने तो 'सो रिपून् ' ऐसा लिखवाया है, प्रथम तो किल पर का लेख देख लेवें वहां 'सो' है कि 'स्व' पीछे झूठी युक्तियां करें । दूसरी यह भी बात है कि लेखकों की उस कुयुक्ति से भी ' खंडयामास स्वरिपून् ' यह श्लोक का चरण निर्दोष तो हो ही नहीं सकता, यों भी 'छन्दोभंग' दोष तो बना ही रहता है यह एक सामान्य नियम है कि ___“ श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं, सर्वत्र लघु पञ्चमम् "
यानी श्लोक के सब चरणों में पांचवां अक्षर लघु और छठा गुरु जानना, ' खंडयामाल स्वरिपून् । यहां पर इस नियमसे उलटा बर्ताव है लघु के स्थान गुरु और गुरुके स्थान में लघु अक्षर है, यह तो “ अजमपनयत उष्टप्रवेशः " इस न्याय वाली बात हुई कि एक अशुद्धि को दूर करते हुए आप के पीछे दूसरी दो अशुद्धियां लग गईं, लेखक जी! क्यों अब तो आप को निज बुद्धिमानी की परीक्षा हुई या नहीं ?।
(८ ) इस अशुद्धिका प्रतीकार लेखक जी यों करते हैं ... ___“ विजयसिंहश्च किल्ला इस पद में आठ अक्षर लिखे हुए मूलस्थान के लेख में मोजूद है इस के बदले में विजेसिंहश्च कल्ला, ऐसा पद ( एक अक्षर न्यून सात अक्षर ) लिख छपवा के जैनंभिक्षु जी कपट का काला कपडा ओढ के छलांध कूप में ढींग मारी है।" .. लेखकों को झूठ बोलने का भी कुछ डर है या नहीं ? क्यों कि मूल लेख में तो 'विजेसिंहश्च कल्ला' ऐसा सात अक्षर का चरण है तो लेखक किसकी आंखों से देख कहते हैं कि मूल लेख में
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